पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/२७७

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रू० ३४ - चौहान ने पत्र पढ़ा- [ यह पत्र लाहौर के शासक चंद पुंडीर द्वारा भेजा गया था जो चिनाब नदी के तट पर गोरी का मार्ग रोके खड़ा था ]- कि चंद ( पुंडीर ) अपने स्थान से फिरेगा नहीं, उसके शरीर में (मानो) वीरत्व अंकुरित हो गया है जिससे उसके प्राण मुक्ति का भोग भोगें ।

रू० ३५- ( पत्र सुनकर ) हिन्दुयों के दल में कोलाहल मच गया, सबने कवच कस लिये, ( चारों ओर ) दस सहस्त्र ( अर्थात् अनेकों ) मशालें जल उठीं (और) अरि दाह ( अर्थात् शत्रु को कष्ट देने वाले ) निशान (नगाड़े ) बज उठे ।

शब्दार्थ - रू० ३३ - नव बज्जी = नौ बजे। घरियार = घड़ियाल । निसा < सं० निशा । श्रद्ध<सं० श्रद्ध। वर उत्तरे = भली भाँति उतरी या बीत गई । संपते = अचानक; सं० संप्राप्त । जग्गिय = जगाया। बिथ्ये <सं० विहस्त = छेड़छाड़; व्यस्तता । मुक्किं< मुक्ति = रोकना, छोड़ना । साहि साही= शहंशाह गोरी । उर तग्गियहृदय में तागो (ध्यान दो)। ग्रह सहस= आठ हजार । लष = लाख। अट्ठारसु =अठारह । ताजिय <० (ताज़ी) : = घोड़ा विशेष अरब का । उभै < उभय = दो । सत्त सात। महल राजभवन । नव बाजियन बजे।


रू० ३४ – बँन्त्रि = बाँचकर, पढ़कर। कागद = पत्र। नै=ने । सह < सं० साउस, वह ।थांन <स्थान। वीर = वीरत्व। तन अंकुरै शरीर में अंकुरित हो गया। मुगति <सं० मुक्ति। मुगति भोग बनि प्रांन=प्राण मुक्ति का भोग भोगें।

रू० ३५ – कूह == कोलाहल ( < हि० कूक ), चिल्लाहट । कै= के। सनाह = कवच। कसैकस लिये। ( ह्योर्नले महोदय ने 'करै' पाठ माना है, और 'करै सनाह सनाह' का अर्थ 'कवच लाखो, कवच लायो', करते हैं, जो संभव है ) । चिराक < फा० ही (चिराग़ ) = दीपक (यहाँ मशालों से तात्पर्य है)। दस सहस= दस सहस्त्र अर्थात् अनेकों । निसांन <फ़ा० = नगाड़े (दे० Plate No. IV)। अरि=शत्रु । दाह = जलाना (यहाँ 'कष्ट देने' से तात्पर्य है )।

दूहा

बाबस्सु नृप मुक्कर्ते, दूत आइ तिहिं बार
"सजी सेन गौरी सुबर[१], उत्तरयौ नदि[२] पार ॥ छं० ४० । रू० ३६ ।

दूहा

पंच सजि गोरी नृपति, बंधि उतरि नदि पार[३]
चंद वीर पुंडीर ने, यदि मुके दरबार[४] ॥छं० ४१ । रू० ३७ ।


  1. ना० - सुभर
  2. ना० - नहिं
  3. ए० –उत्तर यौ नदि पार
  4. मो०- घट मुक्यौ दरबार ।