पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/२९

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के समान है, मुख चन्द्रमा के समान, चंचलता उत्चैश्रवा की भाँति, चाल ऐरावत सदृश, योवन सुरा की तरह मदहोश करने वाला, ( पृथ्वीराज की इच्छाओं को पूरा करने वाली ) वह कामधेनु सदृश है, उसके शील को धन्वंतरि और कौस्तुभमणि की भाँति समझो तथा उसकी भौंह को सारंग के समान ज्ञानो

जिहि उदद्धि मथ्थए । रतन चौदह उद्धारे।।
सोइ रतन संजोग | अंग अंग प्रति पारे ।
रूप रंभ गुन लच्छि । वचन अमृत विष लजिय ।।
परिमल सुरतरु अंग । संत्र श्रीवा सुभ सज्जिय ।।
बदन चंद चंचल तुरंग ! गय सुगति जुब्बन सुरा ||
धेनह सु धनंतर सील मनि । भौंह अनुष सज्ज नर ।। २१६, स० ६६

वथ:संधि अवस्था बालाओं के जीवन में सौंदर्य-विकास की एक अप्रतिम घटना और अद्भुत व्यापार है । रासकार ने इसका कुशल चित्रण किया है । ये अधिकांश वर्णन कहीं भी मुक्तक रूप से युक्त किये जा सकते हैं-

ज्यों करकादिक मकर मैं । राति दिवस संक्रांति ।।
थों जुब्बुन सैसव समय । अनि सपत्तिय कति ।। ४१
यों सरिता श्ररु सिंध सँधि | भिलत दुहून हिलोर ।।
त्यों सैसव जल संधि में । जोवन प्रापत जौर ।। ४२, स० ४७

कबंध-युद्ध-बन-रामायण के कृबंध राक्षस की मृत्यु के उपरांत विश्वावसु गंधर्व का जन्म, महाभारत में संसार के प्राणियों के विनाशकारी अशुभ चिह्न स्वरूप असंख्य कबंधों का खड़ा होना अौर पुराणों की राहु के अमर कुबंध की गाथा ने क्रमशः साहित्य में बंधों के बद्ध करने की पुरम्परा डाली होगी । रासो जैसे वीर-काव्य में उनकी अनुपस्थिति किंचित् आश्चर्य जनक होती । कबंधों के युद्ध अद्भुत-रस का परिपाक करते हुए वीर और रौद्र भावों को उत्तेजना देने वाले हैं । एक स्थल देखिए :

लरत सीस तुटयौ सु सर धर उथ्यौं करि मार ॥
घरी तीन लौं सीस बिन्न । कड़े तीस हजार ।। २२ ५३
बिन सीस इसी तरवारि चहै । निघटै जनु सावन धास महै ।
धर सीस निरास हुअंत इसे । सुभ राजनु राह रूकंत जिसे ।। २२५४, स० ६१

अन्य-वर्णन- मुख्य कथानक छोड़कर रासो में हमें अनेक वर्णन मिलते हैं जिनमें से कुछ का लगाव प्रधान कथा से बड़े ही सूक्ष्म तंतुओं से जुड़ा