पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/२९०

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( ५ ) 1 T शब्दार्थ----रू० ४७---दीनौ = दिया [युद्ध के लिये श्राज्ञा दी ] । प्रिथि राजं <पृथ्वीराज । राह केतु - राहु और केतु युद्ध लाने वाले पाप ग्रह हैं । जप दीन-जप दिया अर्थात् जप कराया । दुष्ट टारे = दुष्ट फल टालने के लिये (= बुरे फल को हटाने के लिये) । सुभ काज शुभ कार्यं । जोगिनी < योगिनी, [ ज्योतिष के अनुसार ६४ योगिनियाँ हैं जो पूर्व, उत्तर, अग्निकाण, नैऋत्य कोण, दक्षिण, पश्चिम, वायव्य, ईशान (या प उ च न द प वा ई) इन आठ स्थानों में घूमती हैं। ये आठ स्थान 'अष्ट चक्र' कहलाते हैं ] । भभोग =भ (नक्षत्र) + भोग | भरनी < सं० भरणी [श्विनी श्रादि २७ नक्षत्रों में से दूसरा नक्षत्र ] | सुविरारी= यह 'सुभरारी' के स्थान पर लिखा गया जान पड़ता हैं। (सुभरारी < शुभरारी = युद्ध में शुभ है जो ) । गुरु = बृहस्पति | गुरु पंचमि= पंचम स्थान के गुरु | रवि पंचम पंचम स्थान के सूर्य । अष्ट मंगल = अष्टम स्थान के मंगल । नृप भारी = नृपके लिये अशुभ | कैइन्द्र < केन्द्र | बुद्ध=बुध ग्रह | भारत > प्रा० भारथ्य <हिं० भारथ = युद्ध | भल = भला, अच्छा । कर त्रिशूल = हाथ में त्रिशूल चिन्ह | चक्रावलिय= चलय ( या मणि बंध) में चक्र, [ या चक्र अवली = चक्र की पंक्ति ] | सुभ वरिय <शुभ घड़ी, शुभमिती | राज बर= श्रेष्ठ राजा ( पृथ्वीराज ) । लीन बरश्रेष्ठ या वरदान लेकर अर्थात् लाभ उठा कर । चढ्यौ = चढ़ाई बोल दी । उदै < उदय होने पर | क्रूरह बलिय= क्रूर और बलवान ! मोट -- रू० ४७ का उपर्युक्त भावार्थ निम्नलिखित प्रमाणिक आधारों से अभिश हो जाने पर स्पष्ट हो जावेगा । २ चतुर्थ बुध लग्न 6. सप्तम २० दशम १२ ११ ८ मंगल Ε