पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/२९९

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( ६१ ) रू० ४६ की इस पंक्ति का 'सु' शब्द बड़ा अर्थ पूर्ण है, “शुर वीर प्रात:काल की उसी प्रकार वांछना करते हैं जैसे सु (उस अर्थात् प्रात:- काल) की वांछना वर रोगी ।" इस रूपक की अंतिम पंक्ति का सार 'रासो-सार' में इस प्रकार लिखा गया है-" (पृथ्वीराज सूर्योदय की उसी प्रकार इच्छा करने लगा ) --जिस प्रकार पतिविहीन स्त्री संसार को असार जानकर पति की मृत्यु के साथ साथ अपने भस्मीभूत शरीर को भी भत्म कर देने की इच्छा करती है ।" छंद दंडमाली भय प्रात रत्तिय जु रत्त दीसय, चंद मंदय चंदयौ । भर तमस तामस सूर वर भरि, रास तामस छंदयौ || बर बज्जियं नीसांन धुनि धन, बीर बरनि अकूरयं । घर घरकि धाइर करपि काइर, रसमि सूरस कूरयं ॥ छं० ५८ । गज घंट घन किय रुद्र भनकिय', पनकि संकर उद्दयो । रन नकि मेरिय कन्ह हेरिय3, दंति दांत धनं दयौ ४ ॥ सुनि वीर सहइ सबद पढ्इ, सह सदर ठंडयौ" । तिह ठौर अदभुत होत त्रप दल, बंधि दुज्जन षंडयौ ॥ छं० ५६ । सन्नाह सूरज सज्जि घाट, चंद ओम राजई | [] मुकुर में प्रतिव्यं राजय, [कै] सन्त धन खसि साई || बर फल्ल बंबर टोप औपत, रीस सीसत आइये । नत्र हस्त कि मन चंपक, कमल सूरहि साइये ॥ बं० ६० । बर बीर धार जुगिंद पंतिय, कब्बि त्रोपम पाइयं । अप्प बंधन हथ्ययं । ताज मोहमाया छोह कल बर, १० घार तियह " धाइयं ॥ संसार संकर बंधि गज जिमि, उनमत्त गज जिसि नंषि दीनी, मोहमाया सभ्ययं ॥ ० ६१ । सूनि आरम देवयो। सो प्रबल महजुग बंधि जोगी, सामंत धनि जिति बित्ति कीनी, पत्त तरु जिमि भेषयो । ० ६२ रु०५०। (१) ए० -- भनषिय (२) ९० -मोरिय (३) ना० होरिय ( ४ ) ए० - धनंजय (५) ना०—सद्द असह इंडयो ( ६ ) [ ] -पाठ अन्य प्रतियों में नहीं है । झोले महोदय ने अपनी पुस्तक में इसे लिखा है (७) ना०-- थायो (८) ना०--त रोस (१) ना०-धा (१०) ना० - करवल (११) ना०--तिह |