पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/३०५

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( ६७ ) मणिमय वस्त्र एवं स्वच्छ चमकीले हथियार ऐसे सुशोभित होते थे मानों मंद ज्योति उड़न समूह सूर्य के प्रखर ताप से उत्तापित होकर पृथ्वी की ओर श्रा रहे हों ।" कवित्त पवन रूप परचंड, घालि असु असिवर भारै । मार मार सुर बज्जि, पत्त त अरि सिर प.रै ॥ कंकर उष्पारे 1 उप्पारे !! फट्टकि' सद्द फोफरार, हुड्डु कटि भसुण्ड परि मुंड, भिंड कंटक बज्जयो विषम मेवारपति, रज उड़ाइ सुरतांन दल । समरध्थ समर मनमथ 3 मिलिय अनी मुष्य पिव्यौ सवल ||०६६|रू५७/ भावार्थ - रू० ५७ - वह [चित्रांगी रावर समरसिंह ] अपने वायु वेगी अश्व पर चढ़कर (शत्रुओं के बीच में कूदता है और तलवार से वार करता है ! उसके मुँह से मारो मारो शब्द घोषित होता है और वह शत्रुओं के मस्तकों को वृक्ष के पत्तों के सदृश तोड़ कर अलग कर रहा है। सैकड़ों फेफड़े फाड़ता हुआ वह हड्डियों को कंकड़ों सदृश उखाड़ता है। उसके भुंड से कट कर (शत्रुओं के मस्तक गिरते हैं जिनको वह काँटों की सीट सदृश फेंकता जाता है । भयंकर मेवाड़पति सुलतान की सेना में धूल उड़ाता हुआ आया । ( इस प्रकार पृथ्वीराज की ) सेना के आगे मन्मथ के समान आता हुआ अपने सामंतों सहित सामर्थ्यवान समरसिंह देखा गया । • शब्दार्थ - रू० ५७ - पवन रूप परचंड वायु सदृश प्रचंड वेग वाला | वालि= कूदना, डालना | असु <सं० श्रश्व = घोड़ा । असिबर श्रेष्ठ तलवार | भारै= झाड़ता हुआ अर्थात् वार करता हुआ। मुर <सं० स्वर | वज्ज्जि - बजना । पारै =अलग करना । फड्डकि = फाड़ता हुआ | सद्द < शत= सौ (यहाँ सैकड़ों से तात्पर्य है ! फोंफरा=फेफड़ा | हुड्डु = हड्डी । कंकर = कंकड़ । उष्पारे = उखाड़ता है । कटिकटकर । भसुँड <सं० भुवुराड = एक काटने वाला स्त्र । परि= गिरना | मंड=सिर | भिंड =भोट, ढेर | कंटक = काँटे । उप्पारै उपारना, नोच फेंकना। वज्रयो युद्ध करने वाला; बजा [ यहाँ वित्रम मेवाड़ पति बज्जयो ( आ- धमका, आया)]। रज उड़ाइ धूल उड़ाता हुया । समरथ्य सं० समर्थ = परा क्रमी । समर = समरसिंह मेवाड़पति --- चित्रांगी रावर -- पृथ्वीराज का बहनोई (१) हा०, ना० फहकि (२) ५० कृ० को ० - फीफरा (३) ए० कृ० को ०- nake मिल, मिली, मिल्यौ, ना० - सम्मर मिलिय !