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स्वामि-धर्म ही प्रधान है कोरा शादर्श मात्र न था । उसका संस्थापन सेना की सामूहिक दृढ़ता और स्थायित्व तथा विशेष रूप से उसकी युद्धोचित प्रवृत्ति की जागरूकता को ध्यान में रखते हुए अति आवश्यक अनुशासन (disolpline) को लेकर हुआ था । अनुशासन ही सेना और युद्ध की प्रथम अवश्यकता है। अदि काल से लेकर आज तक सेना में अनुसाशन की दृढ़त रखने के लिए नाना प्रकार के नियमों का विधान पाया जाता है । यहाँ आज्ञा-कारिता को दासता से जोड़ना ठीक नहीं है क्योंकि उस यग में किराये के टट्ट अ (mercenaries) से भारतीय सम्राटों की सेनायें नहीं सजाई जाती थीं । युद्ध क्षत्रियों का व्यवसाय था और स्वाभि-धर्म हेतु प्राणोत्सर्ग करना उनका कर्तव्य था । यहाँ दासता और धन के लोभ का प्रश्न उठादा तत्कालीन बी युग की भावना को समझने में भूल करना है । सम्राट या सेनापति की आज्ञा- पालन के अनुशासन को चिरस्थायी और ब्रतस्वरूप बनाने के लिए स्वामि-धर्म का इतना उत्कट प्रचार किया गया था कि वह सामान्य से निकों की नसों में कट-कूट कर भर गया था और इसी आदर्श की रक्षा में उनके कट मरने का कार्य दुहाई दे रहा है। दार्शनिक जामा पहने हुए स्वामि-धर्म योद्धा का परम आभूषण था ।

इस प्रकार के वातावरण में रहते हुए, प्रतिदिन ऐसे ही विचारों और दृढ़ विश्वासों के संबट्टन में पड़कर तत्कालीन योद्धा की अंतमुखी वृत्ति असार संसार में यश की अमरता और स्वामि-धर्म के प्रति जागरूक हो जाती होगी, तभी तो हम देखते हैं कि युद्ध-कोल इन योद्धाओं के लिए अनिर्वचनीय आनंद के छ उपस्थित करता था। लड़कर मर मिटने वाले इन असीम साहसी योद्धाश्नों के उदगार कितने प्रभावशाली हैं और साथ ही इनका वीरोचित उत्साह भी देखते ही बनता है :

(१) करतार हथ्थ तरवार दिये । इह सु तत्त रजपूत कर |
(२) रजपूत मरन संसार बर् ।।
(३) सूर मरन' मंगली ॥
(४) भरना जाना हक्क है । जुग्ग रहेगी गल्हां ।।
| सा पुरुस का जीवन । थोड़ाई है भल्लां ||
(५) जीविते लभ्यते लक्ष्मो मृते चापि सुरांगणा ।
यो विध्वंसिनी काया का चिन्ता मरगे रणे ।।
(६) जीवंतह की रति सुलभ । मरन अपच्छर हूर ।।
दी थान लड्डू मिलै । न्याय करे बर सूर ।।