(७) ता छत्री कुल लज्ज ! छत्र धरि सिर हति लज्जै ।।
(८) धार तिथ बर अादि । तिथ कासी सम भज्जै ।।।
असि बेरुना तिन मध्य } लोह तेज़ सम गज्जै ।।
सात सौ वर्षों से जनता के कंठ में प्रतिध्वनित होने वाले जगनिक के आल्हा-खंड' में भी मृत्यु से खेल करने वाले १२वीं शताब्दी के क्षत्रियों की बीरोनित वाणी सुनाई देती है: ।
(१) भरना मरना हैं दुनियाँ मा ! एक दिन मरि जैहै संसार ।।
वर्ग मलैया सब काहू हैं । कोऊ श्राज मरै कोउ काल !!
खटिया पर कै जो मरि जैहौ । कोउ न लैहै नाम अगार ।।
चढ़ी अनी मैं जो मरि जैहौ । तौ जस रहै देस में छाय ।
जो मरि जैहौ खटिया परि कै । कागा गिद्ध न खे हैं माँस ।।
जो मरि जैही रन खेतन मैं ! तुम्हरो नाम अमर होइ जाय ।।
मरद बनाये मरि जैबे कौ । अ खटिया पै भरै बलाय }}
(२) बारह बरिस नै कुकर जायें । अ तेरह ल जियें सियार ।।
बरस, अठारह क्षत्रिय जीवें । आगे जीवन के धिक्कार ।।
जैसे इस समय के योद्धा थे वैसी ही शूर भावों की पोषक उनकी पलियाँ, मातायें, बहनें और बेटियाँ भी थीं । इस शौर्य-काल में ही उन प्रेयसियों के उदाहरण मिलते हैं जो पेट की अाँसे निकलकर पैरों में लग जाने पर और कंधों से सिर कट जाने पर भी हाथ से कटार न छोड़ने वाले योद्धा की बलिहारी जाती हैं :
पाइ विलग झंत्री सिरु ल्हसिउ खन्धस्सु ।।
तो वि कटारइ हथ्थडङ बलि किज” कन्तस्सु ।। सिद्ध हेम०
अथवा जिन्हें विश्वास है कि यदि शत्रु की सेना भग्न हो गई तो उनके प्रिय द्वारा ही और यदि अपनी नष्ट हो गई तो प्रियतम मारा गया है :
जइ भागा पारकंडा तो सहि मज्छु पिएण ।
अह भगा अम्हहं तण तो तें मारिअडेण ।। सिद्धहेम०
इस युग की रमणियाँ ही गौरी से बरदान माँग सकती हैं कि इस जन्म में तथा अन्य जन्मों में भी हमें वह कांत देना जो अंकशों द्वारा व्यक्त मदाँध गजराजों से हँसता हुआ भिड़े :
यहिं जम्महिं अन्नहिं वि गौरि सु दिज्जहि कन्तु ।।
गय मुहँ चतङ्कसहं जो अभिडइ सन्तु ।। सिद्ध हेम०
युद्ध की सुरा में झूमता हुअर क्षत्रिय योद्धा उसे प्रिय देश को