पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/३११

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( ७३ ) Asiatic Journal, Vol. XXV, P, 108 में वर्णित परिहार जाति का नहीं वरन् कोई दूसरा वीर है जो सोलंकी या चौहान वंश का था । उररि उलारे = झपटना | दुहुँ बाँह दोनों सिरों पर । उपभेति रुष = क्रोधित उपस्थित थे । रू० ६० - छट्टि छठवीं । घटिय=बड़ी | कंध कंधे । कट्टि काटना | कुरंग = हरिण । लोह सों लौह जुरुक्के = लोहे से लोहा रुकता रहा । कंक तलवार की मूठ । परक्के = खरकती थी। चित्त में कंक परककेचित्त में तलवार की मूठ खटकती थी अर्थात् ध्यान तलवार की मूठ पर था। भीरदल के दल । भंजर = मंजन करने वाला । लरन तिरच्छो लग्गयो - जब उसने तिरछे पक्ष से लड़ना प्रारंभ किया अर्थात् जब उसने एक पक्ष से वार किया । जेम - जिस प्रकार । संका < सं० शंका ( शंकित होकर या लज्जित होकर ) । सुबर == स्वामी, पति । उदौ < उदय ( सूर्योदय ) । जानि =जानकर । जिमि = जैसे भाग जाती है । नोट- रू० ६० - की अंतिम दो पंक्तियों का अर्थ ह्योर्नले महोदय ने इस प्रकार किया है.--- "Pundir seeing the slaying and fighting multitude, drew aside from fighting, just as a newly married woman, from shyness towards her husband, makes off on noticing the sun's rising." "वंद पुंडीर ने छक्क पाकर यवन सेना पर तिरछे रुख से इस प्रकार धावा किया कि उनके पैर उखड़ गये ।" रासो-सार, पृ० १०१ । छंद भुजंगी मिले चाइ चहुत सा चाँपि गोरी । स्वयं पंच कोरी निसानं अहोरी || बजे व संभरे श्रद्ध कोसं । तिनं' अग् नीसांन मिति श्रद्धकोसं ॥ इं० ७३ बरं बरं चौर माहीति साई । हले छत्र पीतं बले यार धाई ॥ बुलै सूर हक्के हहक्केर पचारं । घले बथ्थ दोऊ घरं जा अषारं ॥ ई० ७४ ।. (१) ना०-- घने (२) ना०--हक (३) ए० -- अपारं |