पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/३१३

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( ७५ ) अनेकों तुरें व वर सूर्य किरणों से उनकी छाया कर रहे ये । पीले छत्र हिल रहे थे । शूरवीर उत्साह से पुकार कर मारो मारो कहते थे। दोनों ओर की सेनायें युद्ध भूमि में उसी प्रकार दौड़ रहीं थी मानों अखाड़े में उतर रहीं हों । या- दोनों ओर के शूरवीर ( परस्पर) चिल्लाकर बुलाते और गरजते हुए ललकारते थे और ( मल्लों सदृश ) कसर में हाथ डाले ( युद्ध भूमि रूपी) अखाड़े में जा धरते ( लड़ने लगते ) थे । ०७४ | I सर कटते ही रक्त की धारा वह निकलती थी मानों आग की ज्वाला निकल रही हो । कबंध नाचते थे और कटे हुए सिर चिल्लाते थे । वहाँ योग माया (दुर्गा) भी ( यह दृश्य देखकर ) स्तंभित हो विचार में पड़ जाती थीं । ०७५ साँग बढ़कर घुस जाती थी, तलवार से तलवार बज रही थी और दोनों सेनायें मारो मारो चिल्ला रहीं थीं । भैरव प्रसन्न होकर नाच रहे थे, गण ताल दे रहे थे और सुंदर अप्सरायें नारद के समीप खड़ी थीं। छं० ७६ । तथा गोरी और चौहान की इसी युद्ध काल में सूर्य अस्त हो रहे थे सेनायें लड़ रहीं थीं । सैनिक तलवार को ऐसा कृष्ण ने रास-मंडल ठाना हो । छं० ७७ । कंडलाकार घुमाते थे मानों सामंतों और शूरों द्वारा फेंके आयुध गोरी की ओर जलते हुए बज्र के समान लगते थे । तलवारों से तलवारें बजकर धड़ करते थे, दोनों कुंभ फूटते थे और खोपड़े टूटते थे । छं० ७८ पृथ्वी पर रक्त की बहती हुई धार ऐसी सुंदर मालूम होती थी मानों बर्षा काल में बीरबहूटियाँ इकट्ठी हो गई हों । पराक्रमी महाराज पृथ्वीराज युद्ध में गोरी से क्रोध पूर्वक भिड़े रहे । छं० ७६ । रू० ६२–६० ८०--सुभट गोरी का तेज (साहस) छूट गया [तब ] aar [ मारूफ खाँ ] [ यह कहकर ] धैर्य दिया ( = प्रबोधा ) कि मेरे रहते सुलतान पर भीर पड़ी ही नहीं (या - मेरे रहते हुए सुलतान पर कष्ट नहीं पड़ aar) । [ तक मैं उपस्थित हूँ तब तक सुलतान के पास सेना है"- थोर्नले ] । शब्दार्थ -- -- रू० ६१ – मिले चाइ - मिलने के चाव से । वाँपि=दवाना, बढ़ना ! पंच कोरी=पाँच कोड़ी-सौ । निसानं श्रहोरी (निशान अहेरी)= अचूक निशाना मारने वाले अर्थात् धनुर्धर सैनिक । श्रवधं < श्रायुध = अस्त्र शस्त्र 1 नीसान << फा०/*=नगाड़े | तिनं अग्ग उनके आगे । बंबर = तुरें | चौर 1