पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/३१५

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७७ ) ओर लगते हैं । बज्ज <वज्र । भूरं = सूखे ( यहाँ 'जलते हुए' का संकेत है ) । तिनं घरह तुट्ट उनके धड़ टूटते हैं । दुहुँ दोनों । कुम्भ कनपटी । भग्गै << [सं०] भग्न । करक = हड्डी : ( उ० -- 'लेखनि करौ करंक की' जायसी ) । : = फूटना । श्रोन ८ श्रोणित = रक्त ! भोमं= पृथ्वी । अपो बिंव राजं == ऐसी सुन्दरता हो जाती है। मेघ बुडढे = मेघ की बुढ़ियाँ, बीर बहूटियाँ । पराक्रम्म राजं= पराक्रमी राजा । प्रथीपत्ति < पृथ्वीपति: पृथ्वीराज । रूट्यौ रूठना ( यहाँ 'क्रोध पूर्वक' का संकेत है ) । रुधि = रुँधकर । समं = साथ ! जंग <फा० ji =युद्ध | जंग जुट्यौ = युद्ध में भिड़ा रहा । = रू० ६२ -- तेज छुट्टि - साहस भंग हो गया। सुवर <सुभट = श्रेष्ठ वीर । दिय धीरज = धैर्य दिया, प्रबोधा । ततार = तातार मारूफ खाँ । मो = मेरे । उपभै (उभ्भै ) = उपस्थित होते । भीर= कष्ट । परीइ न वारु = इसबार पढ़ी ही नहीं । छंद मोतीदाम रतिराज रु जोवन राजत / जोर । चंप्यो ससिरं उर सैंसर कोर ॥ उन मधि मद्धि मधू धुनि होय । तिनं उपमा बरनी कवि कोय' ॥ छं० ८१ । सुनी बर आगम जुब्बन कबहूँ न चैन । म मैंन ॥ कबहुँ दुरि क्रेनन पुच्छत नैन । दुरि बैन ॥ बं० ८२ | सज्जि || रज्जि । भज्जि । छं० ८रें । रज्जि । नन्जि || aat for a दुरी ससि रोरन सैसव दुंदुभि बजि । उभै रतिराज स जोवन कही वर औन सुरंगिय चपे नर" दो बनं बन इय् मीन नलीन भये अति भय् विश्रम भारु परीवहि मुर् मारुत फौज प्रथमं चल्लाइ । गति तजि सकुच्छि कल्ले मिति श्राइ ॥ छं० ८४ । (१) ए० कृ० को ० - कोह, कोय, होह; ना०---- जोय (२) ए० – जुडन (३) भो० ए० को ० -पुच्छन ( ४ ) – सुजोवन, ए०-सजीवन (१) ना० रन, ए० कृ० को ० --- नर ( ६ ) ना० - रत (७) ना०--परी गहि नज्ज, हा०-परी न हि मंजि (८) हा०-- -- चहाइ (१) ना० - संकुचि, हा०-- ० - संकुचि ।