पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/३१६

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( ७ ) दहि सीतम धूप न कंदहि जीव । प्रगटै उर तुच्छ सोऊ उर भीव ॥ बिन पल्लव कोर हिता रहि संभ' । गहना बिन बाल बिराजत श्रंभ ॥ छ० ८५ कति कंठन कंठ सज्यौ अलि पंप । न उड्डिय भ्रंग नवेतिय श्रं ॥ सजी चतुरंग सज्यो बजी इन बनराइ | उप्पर सैसब जाइ ॥ छं० ८६ । कवि मत्तिय जूह तिनं वहु चोर | नंतर वैसंधय चंद्र कठोर ॥ छं० ८७ । रू० ६३ | भावार्थ - ०६३- -- जिस तरह ऋतुराज ( वंसत ) ने शिशिर को दबा लिया है उसी प्रकार यौवन ने शैशवावस्था को दबा दिया है और ग्रव ऋतुराज और यौवन का जोड़ा सुशोभित हो रहा है। उन ( वसंत और यौवन ) के बीच मधुर वार्ता - लाप होता है और उनकी कुछ उपमायें कवि वर्णन करता है | छं० ८६ | यौवन का सुंदर श्रागमन जानकर क्या कामदेव उत्साहपूर्वक नहीं नाचने लगता ? कभी कान नेत्रों से जाकर पूछते हैं कि देखो दौड़ता हुआ कौन आ रहा है ? छं० ८२ । यह शिशिर का शब्द है या शैशव की दुंदुभी बज रही है ? या दोनों ऋतुराज और यौवन ( युद्ध के लिये ) सज रहे हैं ? ( नेत्र कानों को उत्तर देते हैं कि ) लाल रंग से अलंकृत होकर (या सुंदर वस्त्राभूषणों से सजकर ) दोनों ( मनुष्य ) [ऋतुराज और यौवन ] वन को भाग गये हैं । छं० ८३ । नोट - [ इय मीन नलीन भये अति रज्जि' इस पंक्ति से प्रस्तुत रूपक की अंतिम पंक्ति तक एक पंक्ति में यौवन और दूसरी में ऋतुराज वा वसंत का क्रमशः वर्णन है । ] (वसंत ऋतु में) मछलियों (कमल के डंठलों के समीप ) रहकर प्रसन्न होती हैं । ( यौवन काल में ) भय और विभ्रम ( संदेह ) का भार लज्जा ढोती है । ( वसंत में अपनी बारी पर प्रथम मारुत देव अपनी (मृदुल वायु) चलाते हैं । ( यौवन में ) लज्जित चाल और संकोच इकडा हो जाते हैं । (१) ना० --- कोरहि तारहि रंभ; ए० -- कोरहि तारै संभ (२) नार-वर्ग तथ संघ चंद कठोर |