पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/३१९

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( ८१ ) I लेहु लेहु करी । लोह काढे कन्ह जा संभरी | पाइ मंडै अरी । फिरी ॥ छं० ६३ । बीर हक् करी | नेंन स्तं बरी | बीर बज्जे भार पंड जा षोलियं । बीर सा बोलियं ॥ ६४ ॥ धुरं । दंति कट्टे कुरं । कोरियं । फौज विष्फौरियं ॥ छ० ६५ । दंति रुद्वी परे । अग्ग फूलं झरे । पन्नारियं । जावकं ढारियं ॥ ० ६६ । आननं हंकयं । अंग जा संचयं । सत्त सामंतयं । बोन सा पथ्थयं ॥ छंद ६७ । फौज दोऊ फटी | जांनि जूनी टटी । 1 || २०६८ रु०६४ ३ भावार्थ- ई-रू० ६४ - खच्च खच्च का शब्द अत्यधिक बढ़ गया । स्वामी ( पृथ्वीराज ) अपने मन में प्रार्थना करने लगे । उनको क्रोधावेश हो आया और मन में सिंह का साहस भर गया तथा माया मोह क्षीण हो गये । खूब दान दिये गये। राजा की प्रशंसा होने लगी । योद्धाओं ने सात्विक धर्म का ध्यान रक्खा । म्लेच्छों के हाथ काट डाले गये और उनके कंधों से रक्त की धारा बहने लगी । जिसकी ढाल गिर पड़ी उसके प्राण चले गये । (धनुष में) प्रत्यंचा पर संधाने हुए बाण जाल में फँसे हुए पक्षियों सदृश लगते थे। काली और सफेद (श्वेत) सेनायें थीं तथा पीले व लाल रंग की भरमार थी। काली पोशाक यवनों की, सफेद क्षत्रियों की तथा लाल पीला रंग रक्त व मांस का जान पड़ता है] । घोर कोलाहल मचने लगा, (गोरी के हाथी क्रोधित होकर इधर उधर दौड़ने लगे ( जिसके कारण) फौजें फट गई और शूर वीर स्थान स्थान पर झुंडों में खड़े हो गये । पकड़ो पकड़ो की पुकार मन्त्र गई (और) तलवारें निकल आई । [ यह देखकर ] कन्ह (अपने धनुष क.) प्रत्यंचा सँभाल इधर उधर दौड़ने लगे । वीर गरजे और उनके नेत्र रक्त वर्ण हो गये । खाँडे निकल व्याये ( और सैनिक ( 1 } गण ) वीरों के समान बोलने लगे तथा क्रूरता पूर्वक लड़ने लगे । तलवारों के इधर उधर बार पढ़ने से हाथी घायल हो गये तथा फौज छितरा गई। (अंत में ) हाथी अवरुद्ध हो गये ( तब उनपर ) आग के शोले फेंके गये । सोने की पारियों से गुलाल डाला गया । ( कटे हुए) मुँह ( सिर) चिल्लाने लगे और (१) ५० --जामं वयं ।