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जाना चाहता है जहाँ खड्ग के खरीदार हैं, रण के दुर्भिक्ष ने उसे भने कर रखा है और बिना जूके हुए वह नहीं रह सकता :

व्रग बिसाहिउ जहिं लहहुं पिय तहिं देसहिं जाहुं ।
रण दुभिक्खें उगाई विगु जुज्झै ने वला हुँ । सिद्धहेम०

कायरों में भी वीरता फक देने वाले इस युग को हमारे साहित्यिकों ने उचित ही वीरगाथा-काल' नाम दिया है और हमारा ‘पृथ्वीराज-रासो' अपने युग के वीरों की वीरोचित गाथा से परिपूर्ण है । जाति-गौरव के लिये निजी हित-अहित की अवमानना करने वाले भारतीय मान-मर्यादा के रक्षक हिंदू-शासन का आदर्श रूप से पालन करने वाले, प्राचीन संस्कृति के पोषक राजपूत योद्धाओं ने शत्रु को पीठ नहीं दिखाई, जातीय सम्मान के लिये प्रह होम दिये, वचन का निर्वाह किया, सब कुछ उत्सर्ग करके शरणारत की रक्षा की, निशस्त्र, थाहत, निरीह और पलायन कंरने वाले शत्रु पर हाथ नहीं उठाया, धौखा नहीं दिया, प्रतारणा नहीं की, झूठ नहीं बोले, विश्वासघात नहीं किया और युद्ध में स्त्री-बच्चों पर हाथ नहीं उठाया । वे मिट गये, उनके विशाल साम्राज्य ध्वस्त हो गये परन्तु राजपूती आन, बान और शान भार- तीय इतिहास में सदा के लिये स्वर्णाक्षरों में लिखे गई । “अल्हिाखंड' की माँडौ की लड़ाई में आदर्श शूरत्व, अमित युद्धोत्साह, दमित स्वार्थ, शमित मोह और जीवन की बाज़ी फेंकने वालों की ललकार देखिये :

चोट अगाऊ हम न खेलें । ना भागे के परें पिछार ।।
हा हा खाते को ना मारें । नाहीं हुक्म बँदेले क्यार ।।
चोट अपनी जा कर लेउ । मन के भेटि लेहु अरमान ।।

पृथ्वीराज-रासो' सरीखे वीरगाथात्मक काव्य में वीररस खोजने का प्रयास नहीं करना पड़ता । ये स्थल अपने-आप ही हमारे सामने आते रहते हैं और हमारा ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं । अलिंबन, उद्दीपन, अनुभाव और संचारियों की अंगों और उपांगों सहित योजना युद्धवीर रस को प्रसवित करती हुई अपनी उत्साह-भंगिमा द्वारा दूसरों को भी प्रभावित करती है। एक स्थल देखिये :

हयग्गयं सजे भरं ! निसान बज्जि दूभर ।।
नफारे बीर बज्जई । मृदंग झल्लरी गई ।।३५ .
सुनंत इस रज्जई । तनीस राग सज्जई ।।..
सुभेरि भुकथं घनं ! श्रवन · कुद्धि कंझनं ।।३६....