पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/३४

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उपाह मध्य ते चले । सगुन वंदि जे भले ।।
ससूर सूरये कृतं । दिनं सु अष्टमी चलं ।।५४, स० ७

इस प्रसंग के विशद स्थल वे हैं जहाँ सावयव एक के सहारे कवि ने युद्धोत्साह के व्यंजना की है। देखिये——'श्रेष्ठ योद्धा सुलतान गोरी रूपी समुद्र में पंग रूपी ग्रह का भय लगा हुआ था। चौहान की वहाँ देवता रूप में शोभा हुई। उन्होंने युद्ध का परवाना हाथ में ले लिया और शत्रु से भिड़ने के लिये चामंडराय, जैतसिंह तथा बड़गूजर के साथ संदर वट के कार में अपनी चतुरंगिणी सेनी सजाई। फिर तो युद्ध-भूमि में रक्ताभ तलवार रूपी कमल खिल उठे :

समुद रूप गरी सुबर | पंग ग्रेह भय कीन ।।
वाहुन तिन बिबध कैं। सो झोपम कवि लीन्न ।।
सो ओपम कृवि लीन ! समर का लिये हथ्थे ।
भिरन पुच्छि बट सुरंग । बंधि चतुरंग जथर्थ ।।
समर सु मुलि सौर | लोह फुल्यो जस मुर्द ।।
रा, चावंड जैतसी । ए बड़ गुज्जर समुदं ।।५५, स०२६

शूरवीरों के सिरताज महाराज पृथ्वीराज और उनके सामन्तरण अादर्श योद्धा थे। उन्होंने हिन्दुओं की अनुकरणीय वीरता की प्राचीन पद्धति और नियमों की अपूर्व पालन किया है। स्त्रियों पर चार न करने, गिरे हुए घायलों और पीठ दिखाने वालों को न मारने आदि के नियमों का यथेष्ट संयम-पूर्वक उनके द्वारा निर्वाह रासो में मिलता है । परन्तु इन सवसे बढ़कर जो बात पृथ्वीराज ने कर दिखाई वह भी इतिहास की एक अमर कहानी है। वह है रासो के अनुसार चौदह बार और पृथ्वीराज-प्रबंधु के अनुसार सात बार शत्रु को प्राण-दान और प्राण-दान ही नहीं वरन ऐसे प्रबल शत्रु को जो, कई बार अपमानित और दंडित होकर भी फिर.फिर आक्रमण्ड करता था, वंदी बनाने के उपरांत मुक्त कर दिया और मुक्त हो नहीं वरन आदर-सत्कार के साथ उसे, उसके घर भिजवाया । भारत के इतिहास को राजपूत-काल ही ऐसी वीरता के नमूने पेश करने में समर्थ है ?

उत्साह और रति की मैत्री अस्वाभाविक है तथा एक स्वर से काव्य-शास्त्र के आचार्यों द्वारा कराई गई है परन्तु रासो में इनके मेल के कई स्थल हैं। यह कहना बिलकुल कठिन नहीं है कि इन विरोधी रसों के सामंजस्य की परंपरा सो-काल की धरोह थी, जो जायसी आदि परवर्ती अयियों को जागीर रूप में मिली । बारहवीं शताब्दी में विशेषत: उत्तर-पश्चिम