पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/३३१

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( ६३ ) उतरा । विय वाजिय = दो घोड़े । उत्तर विय बाजिय= दो घोड़ों पर चढ़ा । धरा=पृथ्वी । गिर < गिरि= पर्वत । कंदर = कंदरा, गुफा | गाजिय= गूँज उठीं। पशुपंजलि < पुष्पांजलि | पूजत = पूजा की, प्रशंसा की। रिनह <रण (की) = युद्ध (की) । इक < अप० इक <प्रा० एक, एक्को, एगो, एओ< संग एक == हि० एक । परयौ सोधे सकल = सारा दूँढ़ता पड़ा रहा। घेत-खेत < क्षेत्र | बंधे=धे | धुनह= धुन | नोट रू० ७० - "इधर जब खिलजी खाँ के मुकाबले में दो तीन अच्छे अच्छे बीर काम आये तब सारंग देव ने उस पर आक्रमण किया, सारंगदेव ने अपने घोड़े को एड़ देकर खिलजी खाँ के हाथी के मस्तक पर जा टपकारा | इस अद्भुत कौशल से इधर तो हाथी चिकार उठा उधर सारंगदेव ने खिलजी खौं को मार कर दो कर दिया ।" रासो-सार, पृष्ठ १०२ । रू० ६६ में जिस प्रकार दीर्घकाय मगर की कल्पना की गई है उसी हँग की एक मौलिक उद्भावना यहाँ भी है। & कवित्त करी मुष्ष आहुर, वीर गोइंद सु अष्ष । कबिल पील जनु कन्ह, दंत दारुन दहि' नब्बै ॥ सुंड दंड भयै पंड, पीलवानं गज मुक्यौ । गिद्ध सिद्ध र वेताल, आइ अषिन पल स्क्यौ ॥ बर वीर परयो भारथ्य बर, लोह लहरि लग्गत * भुल्यौ । तत्तर पान संम्ह सुत" सिंह हक्कि अंबर डुल्यौ ॥ छं० १०५ । २०७१ । भावार्थ - रू० ७१ - वीर गोइंद के संबंधी बहु ने एक हाथी की सूँड वैसे ही पकड़ कर खींची ( या अक्षय वीर गोइंद के संबंधी ने एक हाथी की सूँड़ वैसे ही आहुड (ऐंठ) दी ) जैसे कृष्ण ने कुवलयापीड़ के भयानक दाँत तोड़े थे । सुँड के दाँत टूट जाने पर पीलवान ने उसे छोड़ दिया तथा गिद्धों, सिद्धों और वेतालों ने आकर उस पर दृष्टि जमाई 12 ( परन्तु ) इस वीर युद्ध में श्रेष्ठ योद्धा ( = कनक आहुड) गिर पड़ा, तलवारों के बारों से वह मरी हो गया था, तत्तार खाँ के सामने उसने अपनी वीरता दिखाई थी (और) उसका सिंह सहश गर्जन सुनकर आकाश भी काँप उठता था । शब्दार्थ –६० ७१ -- करी = हाथी । मुष्णन्मुख (यहाँ हाथी की सूँड़ से तात्पर्य है । यह पृथ्वीराज का वीर सामंत था । अगले रू० ८४ (१) ना०--नाहि (२) ना० – गिद्धि सिद्धि (३) ना०--लहरी (३) ना०- लगात (१) ना----सम्हौ सुक्रत - सम् सुकृत ।