पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/३५

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भारत के शासकों और क्षत्रिय योद्धाओं के जीवन में अनवरत रूप से युद्ध होने के कारण उनमें युद्धोत्साह और रति के शाश्वत उभार स्वाभाविक रूप से देखे गये जिनका प्रतिबिम्ब साहित्य में साकार हुआ । शास्त्र द्वारा अविहित होते हुए परन्तु सामन्ती जीवन में प्रत्यक्ष रूप से उन्हें घटित होता देखकर कवि का मन वास्तविकता के चित्रण का लोभ संवरण न कर सका। आये दिन होने वाले युद्धों को मोर्चा सम्हालने का उत्साह अक्षुण्ण रखने के लिये यदि उसने अपने वीर आश्रयदाता और उसके पक्षवालों की हित कामना से रति जैसी कोमल भावनाओं के अंतर्गत युद्धोल्साई सरीखी कठोर भावनाओं का सामंजस्य कर दिया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । पृथ्वीराज और संयोगिता की रति-क्रीड़ा को रति-वाह की युद्ध-क्रीड़ा का रूप देने की चेष्टा ऐसे ही प्रसंगों में है ।

साज गुढ झोपंत } बहिय र सन ढक रज्जं ।।
अधर मधुर दंपत्तिय । लूटि अब ईव परज्जं ॥
अरस प्ररस भर अंक । धेत पुरजंक षदक्किय ।।
भूपन टूट कवच { रहे अध बीच लटकिय ।।
भीसान थान नूपुर बजिय } हाकु हास करत चिहुर ।।।
रति वह सफर सुनि इंछिनिय । कीर कहत बत्तिय गहरे ॥१४१, स० ६२

रासो में जो स्थिति उत्साह की हैं वही क्रोध की भी है। युद्धकाल के सभी प्रसंगों में अबधि रूप से उसकी कुशल अभिव्यक्ति देखी जा सकती है। कहीं-कहीं उसके साथ जुगुप्सा भी है :

बजे बज्जन लागि दल उभै हेकि अगि वीर ।
विकसे सूर सपूर बढ़ि केपि कलत्र अधीर ||२२६
छुट्टियं हथ भारि हुआ दल गोम ब्योमह गजिये ।।
उडियं अतिस झार झारह धोम धुधर सज्जिये ।।२२७....
छुट्टियं बान कमान पानह छह अयस रज्जिथे ।
निरपंत अच्छरि सूर सुब्बुर सज्जि पारथ मञ्जिये ।।
गरि सीस हेक्कहि धर हहक्कहि अंत पाइ अलुझझरे।
उति उध्रि क्रयसि केस उकसि साइ सुथ्थल जुझझरं ।।२३१, स०५८

रौद्र रस के प्रसंग में कवि ने सांग रूपक के माध्यम से अनेक श्रेष्ठ योजनायें की हैं । एक प्रसंग इस प्रकार है———युद्ध रूपी विष यज्ञ प्रारंभ हो गया, शल-बल प्रहार रूपी वेद पाठ होने लगा, हाथी, घोड़ों और नरों का हुघन होने लगा, शीश कटने के रूप में स्वस्ति-वाचन आहुति दी जाने लगी,