पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/३४२

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not dispute (the matter,) but accept in me a resplendent wife," ।

और रू॰ ७६ का अर्थ उन्होंने इस प्रकार किया है—

"The head of the kinsman of Rama now Isa with his hand desired to take, like a man who has become a beggar covets a bone whenever he sees it," p. 49.

कवित्त

जंधारौ जोगी जुगिंद, कढ्यौ कट्टारौ।
फरस[१] पानि तंगी त्रिसूल, पष्षर[२] अधिकारौ॥
जटत बांन सिंगी विभूत, हर बर हर सारौ।
सबर सद्द बद्दयौ, विषम दग्गं धन झारौ[३]
आसन सदिट्ठ निज पत्ति में, लिय सिर चंद अम्रित अमर।
मंडलीक राम रावत[४] भिरत, न भौ बीर इत्तौ समर॥छं॰ ११३। रू॰ ७८।

भावार्थ—रू॰ ७८—जंघार (या=जंघारा), योगियों में योगीन्द्र (शिव) सदृश दिखाई पड़ा; (उसके एक हाथ में) खुली हुई कटार थी, एक हाथ में फरशा, (पीठपर) ऊँचा त्रिशूल और बाधँवर था। सर पर जटाओं का जूट बाँधे, बाण तथा सिंगी बाजा लिये, और (शरीर में) भभूत मले हुए वह सर्व नाशक शिव सदृश दिखाई पड़ता था। उसने शाबर मंत्रों का उच्चारण करके विषम मद में भरने वाली वायु फैला दी। [अब वीर गति प्राप्त हो जाने पर] वह (स्वर्गलोक में) अपनी (योगियों की) पंक्ति में देखा जा सकता है; उसके सिर पर अमरत्व प्रदान करने वाला अमृत से युक्त चंद्रमा सुशोभित है। मंडलेश्वर राम और रावण के युद्ध के बाद संसार में ऐसा युद्ध अब तक न हुआ था [बा—राम रावत के युद्ध से अब तक समर भूमि में ऐसी वीरता न देखी गई थी—ह्योर्नले]।

शब्दार्थ—रू॰ ७८—जोगी जुगिंद=योगियों में योगीन्द्र सदृश। कढ्यौ कट्टारौ=कटार काढ़े हुए। फरस=फरशा। पानि<सं॰ पाणि=हाथ। तुंगी<तुंग ऊँचा। त्रिसूल<सं॰ त्रिशूल। पष्षर=जिरह बखतर, (यहाँ बाधं बर)। अधिकारौ=अधिकार में (अर्थात् सुसज्जित)। जटत=जटाओं का जूड़ा। बांन<बाण। सिंगी=सींग का वाद्य विशेष। बिभूत=भभूत। हर बर=श्रेष्ठ


  1. ना॰–परस
  2. ना॰–मष्षर
  3. ना॰–विषम मद्गंधन झारौ
  4. मो॰–रावन; ना॰–रावत।