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गिरि परवत नद वोह सर ! लंधत लगी न वार ।।
लंगा इक्कन लंघयौं । अनी धार धर घार ।। छं०२४।। सम्यौ ५।।

इसका पिता संजन राय कम स्वामिभक्त नहीं था ! महोबा युद्ध में पृथ्वीराज के मूच्छित होने पर एक गिद्भिनी उनके सर पर आ बैठी और आँख निकालने लगी । संजम राय में यह दृश्य देखकर गिद्धन को अपने शरीर का मांस काट काट कर खिलाना प्रारंभ कर दिया और इसी में प्राण दे दिये---

लोह लागि चहुबान । परे मूरछा हैं धरतिय ।।
उड़ गीधनि बैठि कै । चुंच बाहैति विरत्तिय ।।
देष्यौ संजम राय । नृपति इग दाढ़ति पंछिन।।
अपने तन कौ मासु । काटि भषु दियौ ततच्छिन्न ।।
अपने सु नयन देष्यौ नृपति ! अंत समय भ्रम मल्लियव।
आये विवान बैकुंठ के । देह सहत धरि चल्लियव ।। छं० ८१३, महोवा समय ।।

पृथ्वीराज ने संजमराय के इस अपूर्व वलिदान पर उसके पुत्र(लंगरीराम) को आधी गद्दी का आसन और आधे राज का पट्टा दिया---

संजम राय कुंदर कौ । बोलि हजुर नरेस । हय गय मनि मानिक वकसि । अध आसन देस।। छं०८२८ ।

महोबा समय ।'

शशिव्रता हरण में गये हुए सामंतों के साथ लंगरी राय भी देवगिरि गया था--

चढ्यौ लंगरी राय लंगा सुबीर ।।
किधौं बाय वढ्यौ बुअं जानि धीरे ।।" छं० २१३, सभ्यौ २५ ।।

प्रस्तुत समय २७ में हमने लंगरी राय की बीरता का हाल पढ़ा ही हैं। लंगरी राय की मृत्यु इस युद्ध में नहीं हुई जैसा कि कुछ विद्वानों का अनुमान है, वह बहुत बुरी तरह से घायल अवश्य हो गया था । अगले समय ३१ में उसके पराक्रम का हाल फिर पढ़ने को मिलता है-

'लग्यो लंगरी लोह लंगा प्रमानं।
पगे घेत पंड्यौ पुरासान पानं ।।छं० १४४, सम्यौ ३१।'

समय ४३ में जो शहाबुद्दीन से युद्ध का वर्णन है उसमें भी लंगरों का नाम आता है---[ जू चल्यौ लंगरीराइ रन्न जंग ।। छं० ३१ ]।'भीम वध' समय में भी लंगरी राय चौहान के साथ था--- लंगरी शव तहँ बैठि आई।