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जगि जुद्ध सभय जनु अगनि बाइ॥ छं॰ १३, सम्यौ ४४]। 'दुर्गा केदार' समय में भी लंगरी राय संभरी-नाथ के साथ गया था और गोरी से लड़ा था—[सत तुंग भपन लंगरी राव। छं॰ १७, सम्यौ ५८]। अंत में कनवज्ज समय में हम वीर लंगरी राय की अंतिम वीरता और मृत्यु का हाल पढ़ते हैं। पृथ्वीराज के पूर्व पुरुषों में पप्पयराज नाम का कोई प्रतापी पुरुष हो गया था। उसके दो पुत्र थे जिनमें एक के वंश में पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर थे और दूसरे का वंशज संजमराय था जिसका पुत्र लंगा लंगरी राव था। पृथ्वीराज चंद के साथ भेष बदले हुए हैं, यह जानकर जयचंद ने चंद कवि का पढ़ाव चारों ओर से घिरवा लिया। अब युद्ध के सिवा दूसरा उपाय ही क्या था। सामंत भी कमर कस कर तैयार हो गये। संजय राय का पुत्र लंगरी अपना नमक अदा करने के लिये सबसे पहले उठ और शत्रुओं को चीरता फाड़ता राज महल में पैठ पड़ा (छं॰ ९८३-८९, सम्यौ ६१)। उसका शरीर बीच से चिर कर दो हो गया। एक धड़ तो वहीं पड़ा रहा परन्तु दूसरा महल की पहली चौक में घुस गया और मार काट करने लगा (छं॰ ९९१-९३)।रनिवास की स्त्रियाँ झरोखों से यह कौतुक देखने लगीं। सैकड़ों का वारा न्यारा करता हुआ वह जयचंद के मंत्री सुमंत के सामने सामने आया, और अंत में दोनों गिर गये।

किलकिला नाल छुट्टी आग्राज।
लै चली लंग पर महल साज॥
दस कोस परे गोला रनक्कि॥
परि महल कोट गज्जी धनक्कि॥छं॰ १००३॥
संजमह सुअन लै चली रंभ।
सब लोक मद्धि हुऔ अचंभ॥छं॰ १००८, सम्यौ ६५१॥

लंगरी राय ने जयचन्द के तीन हजार योद्धा, मंत्री पुत्र, भानजे और भाई आदि मारे। क्यों न हो अखिर स्वामी की रक्षा में गिद्धिनी को अपने मांस वाले का ही पुत्र था।

कविता

(तब) लौहांनौ महमुंद[१], बांन मुक्के बहु भारी।
फुट्टि सु ढढ्ढर वहि जुबान[२], पिट्ठ ऊरद्ध निकारी॥

  1. ना॰—लोहानौ सदमंद, हा॰—जोहांनौ महसुंद
  2. ना॰—फुट्टि सु
    ढढ्ढर ज्वान।