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उस हवन कु' का क्रोध रूपी विस्तार हुआ, कीर्ति रूपी मंडप तन्ना था, गिद्ध सिद्ध वेताल रूपी दर्शक थे, किन्नर, नाग, तु बरु और अप्सरायें गान कर रहे थे, इस युद्ध रूपी यज्ञ में करों को मुक्ति रूपी तत्व के भोग की प्राप्ति हुई ;

विषम जग्य प्रारंभ । वेद प्रारंभ सस्त्र बल ।।
है गै नर होमियै । शीश आहुत्ति स्वस्ति कल ।।
क्रोध कुडे बिस्तरिय } किलि मंडप करे मंड्रिय ]।
गिद्धि सिद्धि वेताले । पछि पल साकृत छंडिय ||
तंबर' सु नारा किन्नर सु चर ! अच्छरि अन्छ जु गावहीं ।।।
मिलि दोन अस्स अप्पन जुगति । भुगति मुगति तत पावही ।।४५३, स० २५

बीभत्स का प्रसंग पृथक नहीं वरन् युद्ध के अन्तर्गत ही आता है । योगिनियों की रुधिर पीना, गिद्धों का चिल्लाना श्रादि स्वाभाविक दृश्यों का इनमें चित्रण पाया जाता है :

पत्र भरें जुरिगनि रुधिर, गिधिय मंस डेकारि ।
नये इस उमथ सहित, रुड माल गल धारि ॥६६,९०३९

युद्ध-भूमि में भयंकर वेष वाले योगिनी, डाकिनी, भूत, प्रेत, पिशाच, भैरब आदि के नत्य और किलकारियाँ, कबंधों का दौड़ना, पलचरों का गाना अादि वहुवा भय की प्रतीति कराने लगते हैं परन्तु यह सहचारिता उचित और संभव है।

स्वतंत्र रूप से भयानक रस का परिपाक हुढा दानव के प्रसंग में मिलता है । ढूं ढ-ढूं ढ कर मनुष्यों को खाने वाले विकराल हुढी दानव ने‌ सारा अजमेर नगर उजाड़ डाला ! उसके भय से उस नगर के समीपस्थ वन में किसी जीव का प्रवेश न था और दिशाएं भी शून्य हो गई थीं, उसकी घौर हिंसकता के आगे मानव तथा अन्य जीवों की क्या चर्चा, सिंह सदृश हिंसक जंतु भी भाग खड़े हुए थे ।' अथा :

सो दान, अजमेर बन । रह्यो दीह घन अंत ।।
सुन्न दिसानन. जीव के। थिर थावर जग मंत् ।।५२६
तहँ सिंध न ग न पग्नि बने । दिसि सून भई डर, जीव घनं ।
तिहि काम गर्ज बर बाजि नन् । तिहँ ठाम न सिद्धय साधकनं ।। ५२७

पाँच सौ हाथ ऊचा, हाथ में विकराल खड्ग लिये हुँदा मुह से ज्वालायें फेंका करता था :

अंगह मान . प्रमान । पंच मैं हाथ उने कम् ।।
इह. ॐचो उनमात ।-विनय लछिछनई विवेकह ।।