पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/३५१

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मनों किवारी लागि, पुट्ठि षिरकी उघ्घारिय।
कट्टारी[१] वर कट्ठि, वीर अवसान सँभारिय॥
एक झर मीर उज्झारि झर[२], करि सुमेर परिअरि सुफिरि।
चवसट्टि पांन गोरी परे, तीन राइ[३] इक राज परि॥छं॰ ११७। रू॰ ८२।

भावार्थ—रू॰ ८२—तब लोहाना ने महमूद पर एक बड़ा भारी बाण चलाया जो (उसका वक्षस्थल) फोड़कर धड़धड़ाता हुआ घुस गया और ऊपर पीठ में आ निकला मानों दरवाज़ा बंद देखकर उसने पीठ में खिड़की खोल दी। [महमूद जब इस प्रकार आहत हो गया तो लोहाना ने म्यान से] कटार काढ़ ली और उसका अंत करने के लिए सँभला (बढ़ा)। (यह देख कर गोर के एक) मीर ने (तलवार के) एक बार से उझाल कर उसे गिरा दिया (मार डाला) और वह (लोहाना सुमेरु की परिक्रमा करने चला गया। [अभी तक रण क्षेत्र में] ग़ोरी के चौंसठ ख़ान मारे गये तथा [पृथ्वीराज की ओर] एक और तीन अर्थात् तेरह राव राजे काम आये (या) एक राजा और तीन राव खेत रहे।

शब्दार्थ—रू॰ ८२-लोहांनौ—लोहाना, पश्चिमी भारत, सिंध और कच्छ में फैली हुई जाति का नाम है। "पहले ये राठौर वंशी राजपूत थे जो कन्नौज से सिंध प्रदेश में खदेड़ दिये गये थे और तेरहवीं शताब्दी में सिंध से कच्छ चले गये थे। उस समय ये भंसालियों की भाँति जनेऊ पहनते थे और अपने को क्षत्रिय कहते थे।" [Hindu Tribes and Cates. Sherring. Vol. II, p. 242]। सिंध की हिन्दू आबादी में सबसे अधिक ये ही लोग हैं (वही, पृ॰ ३७१)। इनमें से कुछ सिख धर्मानुयायी भी हैं (वही, पृ॰ ३७५)। "लोहाना जाति घाट और तालपुरा में विस्तार से फैली हुई है। पहले ये राजपुत थे, परन्तु व्यापार करने के कारण कुछ समय बाद वैश्य हो गये"—[Rajasthan. Tod. p. 320]। "पृथ्वीराज के राजस्व काल में ये कन्नौज के समीप ही रहते होंगे जहाँ से मुसलमानों की विजय के बाद राठौरों के निर्वासित किये जाने पर बाहर चले गये"—ह्योर्नले। चंद ने अपने महाकाव्य में लोहानों का वर्णन किया है। लोहाना वंशी एक वीर पृथ्वीराज के साथ संयोगिता अपहरण वाले युद्ध में भी था और उसी युद्ध में पराक्रम दिखा कर खेत रहा [रासो सम्यौ ६१, छं॰ १४६३-६४]। महमुंद<महमूद—(रासो की प्रतियों में 'महसुंद'

पाठ भी हैं)—यह वीर, शाहज़ादा


  1. ना॰; हा॰–बट्टारी
  2. ए॰–कर
  3. ना॰–तिन रावन; ए॰ कृ॰ को॰—तीन राई। (तब)–पाठ अन्य प्रतियों में नहीं है केवल हा॰ ने दिया है।