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काबुली-वीर और दृढ़-दुर्ग के पर्य्यायवाची शब्द इस रूपक में कहीं नहीं आये हैं। फिर कवित्त से यह भी स्पष्ट है कि लोहाना ने छाती के बार पार वाण मारा था न कि कटार।

(२) लोहाना आजानुवाहु—यह वीर लोहान अद्वितीय पराक्रमी था। एक दिन महाराज पृथ्वीराज सायंकाल सोलह गज ऊँची चित्रशला की गौरव में सामंतों सहित खड़े थे। एक चित्रकार ने एक चित्र पेश किया। उसका संभरीनाथ देख रहे थे कि वह चित्र हाथ से छूट पड़ा परन्तु लोहाना आजानुवाहु ने उसे अधविच में ही झड़प लिया—('ठढ्ढों सु इक्क लोहान भर। कहर कबुतर कुद्दयो॥ जो नेक चूकि ऐसी गिर्यौ। साप अंब हू हल्लयौ॥' छं॰ २, सम्यौ ४) तभी पृथ्वीराज ने इसे आजानुबाहु वाम दिया था (सम्यौ ३, छं॰ ५७)। इसने ओड़छा के राजा का दुर्ग भी छीना था (सम्यौ ४)। पृथ्वीराज इसका बड़ा सन्मान करते थे। अंत में अंतिम युद्ध में आजानुबाहु स्वामी के लिए पराक्रम से भिड़कर [तबै गज्जियं वीर आजान बाहं। मिल्यौ मीर अड्डो सुरं जुद्ध राहं॥' छं॰ १२९३, सम्यौ ६६] वीरता पूर्वक लड़ता हुआ मारा गया—

पर्यौ होंय आजान। वाह त्रयपंड धरन्नी॥
जै जै जै जंपंत। मुष्ष सब सेन परन्नी॥
धनि धनि जंपि सुरेस। सु धुनि नारद उचारं॥
करिग देव सब कित्ति। बुद्धि नभ पुहुए अपारं॥
कौतिग्ग सूर थक्यौ सुरह। भइय टगटृग भुअ भरनि॥
आसंसि करै अच्छर सयल। गयो भेदि मंडल तरनि॥ छं॰ १३०५। सम्यौ ६६।

कविता

मंनि[१] लोह मारूफ, रोस बिड्डर गाहक्के।
मनो पंचानन बाहि, सद्द सिरसद्द[२] हहक्के॥
दुहूं मीर बर तेज, सीस इक सिंघह्व बाही।
टोप टुट्टि बर करी,[३] चंद उप्पमा सु[४]पाई॥
मनु सीस बीय श्रँग बिज्जुलह, रही हेत तुटि भाम न[५]हति।
उतभंग सुहै बिव टूक ह्वै, मनु उडगन नृप तेजसति। छं॰ ११८। रू॰ ८३।

भावार्थ—रू॰ ८३—विड्डर अपनी तलवार चलाने की कुशलता पर विश्वास करके मारूक की और क्रोधिपूर्वक लपका (और गरजा) मान सिंह


  1. ना॰–मानि;
  2. ना॰–सिर हद्द; भो॰–सिरद्दस, सिरद्दसु
  3. ना॰–वहकरी,
  4. ना॰–छंद ओपमता पाई; ए॰ कृ॰ को॰ –उपमा सु, उपमा सुई;
  5. ना॰—'भाम न' के स्थान पर 'भान' पाठ है।