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हथ्थ पड्ग विकराल | मुध्य ज्वालंबन सद्दह ।। ५८०, सं० १

एक ऋषि द्वारा पृथ्वीराज को अन्धे किये जाने के श्राप में भी भयानक रस की अवतारणा मिलती है । इसके अतिरिक्त युद्ध-भूमि में भूत-प्रेतों का नृत्य-गान आदि दृश्य भी इसी रस के प्रसंग हैं ।

हास्य के स्थल रास में अति थोड़े हैं ! एक आध स्थल पर वाणी और बेश के कारण उसकी संभावना हुई है । कान्यकुब्जेश्वर के दरबार में‌ महाराज जयचन्द्र और चंद बरदाई के प्रश्नोत्तरों में वह उद्भूत हुआ है। कृत्रि को अपने से अधिक पृथ्वीराज का पराक्रम बयानते देखकर जयचन्द्र, ने उससे श्लेष वक्रोक्ति द्वारा यूछा कि मुंह का दरिद्री, तुच्छ जीव, जंगलराव (पृथ्वीराज; भील ) की सीमा में रहने वाला बरद ( वरदाई; बैल ) क्यों दुबल! है :

मुह दरिद्र अरु तुच्छ तन, जंगलराव सु हद्द ।
बन जार पशु तन चरन, कयौं दूब बरद्द ।।५८०

उद्भट कवि ने उन्हें उत्तर दिया कि चौहान ने अपने घोड़े पर चढकर चारों ओर अपनी दुहाई फेर दी, अपने से अधिक बलवानों के साथ उन्होंने युद्ध किया, शत्रों में किसी के पत्ते पकड़े, किसी ने जड़े और किसी ने तिनके; अनेकों भयभीत होकर भाग खड़े हुए, इस प्रकार शत्र ने सारा तृए चुन लिया और वैल दुबला हो गया :

चढि तुरंग चहुशान शान फेरीत पद्धर ।
तास जुद्धे मंडयौ जास जानय सबर बुर ।।
केइक गहि तकिय पात, केइ गहि डार मूर तर ।।
केइक दंत तुछ त्रिन्न, गए दस दिसनि भाजि डर ।।
भु लोकत दिन प्रचिज भयौं, मान सबर बर मरदिया ।
प्रथिराज पलन घद्ध जु घर, सु यो दुब्बौं बरदिया ।।५८१

जयचन्द्र ने फिर व्यंग्य किया और कवि ने फिर फब्ती कसी । अन्त में महाराज ने निरुत्तर होकर कवि को बद के स्थान पर बिरुद बर’ कहकर संबोधित किया, परन्तु कवि ने पूर्व कहे हुए ‘बरद’ की महिमा की विवेचना करते हुए कहा कि जिस बरद (बैल) पर चढ़कर गौरीशंकर ने अपने शीश पर गंगा को धारण किया और सहस्त्र मुखों वाला देखकर शेषनाग को गले का हार बनाया, उस भुजंग के फणों पर सम्पूर्ण वसुमती का भार है तथा पृथ्वी पर पर्वत और सगिर हैं, सृष्टिकर्ता ने उस वृषभ के कंधों पर सार