पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/३६३

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[नोट--यहाँ से तीसरे दिन के युद्ध का वृत्तांत प्रारम्भ होता है। पिछले रू० ८४ में दो दिन के युद्ध में मरे हुए वीरों की हालत सूक्ष्म रूप से बता दिया गया है।]

भावार्थ---रू० ८५--दूसरे दिन प्रात:काल शाह गोरी ने दस हाथी ( सेना के) आगे रक्खे। और तातार खाँ ने आकाश वाणी सदश चारों ओर चिल्लाकर (युद्ध प्रारम्भ करने की) आज्ञा दी। (जिसे सुनकर) कुहक वाणा तथा छोटी और बड़ी तोपों से गोले फेंके जाने लगे। (गोलों की बाढ़ से घबड़ा कर) पृथ्वीराज का हाथी (युद्ध भूमि से) भागने लगा और (यह देखकर) उनका चित्त ब्याकुल हो उठा। [महाराज को अस्थिर देखकर] सामंत और श्रेष्ठ शूर वीर अपने उत्तम वीरत्व को और हुमसा कर आगे बढ़े तेथ। मोह का परित्याग कर क्रोध पूर्वक वज्र के समान तलवारें चलाने लगे।

शब्दार्थ----रू० ८५--दुसरे (प्रा०)<सं० दश>हिं० दस । हथ्थी प्रा० <सं० हस्तिन=हि० हाथी । बिहान (देशज) (सं० विभात)=सवेरा (यहाँ दूसरे दिन से तात्पर्य हैं)। मुघ किनौं=सामने किये करे अकासवादी=आकाश वाणी करते हुए । सोर<फा० "(शोर)। चव=चार । कोद (कोध) [देशज] <(सं० कोण, कुत्र)=दिशा,और, कोना । अव कोद=चारों ओर। दिन्नौ=दिया, दी। कर अकासवादी तातार सोर चवकोद स दिन्नौं=विवादी तातार खाँ ने आकाश की और हाथ उठा कर चारों दिशयों में ज्ञौर से आज्ञा दी , ह्योनले] । नारे<अ०==बड़ी तोप । जंबूर<अ० १); (ज़बूरह)छोटी तोए । कुक-=कुहक बाण ! ३० Plate No,III] । अतं (<सं० आघात)=मारना । गजि (प्रा०)<सं० गज-हाथी । भाग= भाग ३ चित करयो अकुलात=चित व्याकुल कर दिया। अकुलातं<८० आकुलन=बचड़ाना, बेचैन होना, व्याकुल होना । मोह (सं०)= देह और जगत की वस्तुओं को अपना और सत्य जानने की दुखद भावना; (उ०--‘मोह सकल व्याधिन कर मूला’ रामचरितमानस)। कोह< सं० क्रोध; (उ०--सूध दूध मुख कुरिय न कोहू-- रामचरितमानस)। बजि के<बरजि के=छोड़ करके । ब्रज = वज्र।धार तलवार। धनसि कैं-धमसकर। सूर बर=श्रेष्ठ शूर । वीर बर=श्रेष्ठ वीर; बीरे बर= उत्तम वीरता (या वीरत्व) । मसि कैं (देशज) = हुमसा कर; हिलाकर। उठे=अगे बढ़े। उठे बीर बर हमल कैं=उत्तम वीरत्व को और अधिक बढ़ा कर आगे बढे।

नोट---ह्योनले महोदय ने प्रस्तुत कवित के अंतिम दो चरणों का अर्थ इस प्रकार किया है---"Then abandoning emotions of love