and anger, and brandishing their swords like thunderbolts, the Samantas, warriors and heroes rose up." p.59.
युद्ध में मोह को छोड़ना तो ठीक है परन्तु क्रोध का त्याग संभव नहीं है। 'क्रोध' रौद्र-रस का स्थायी भाव' है अतएव युद्ध में क्रोध का रहना आवश्यक है।
कवित्त
भावार्थ—रू॰ ८६—(उस समय जब) मीर आधे-आधे योजन इधर उधर दौड़कर साँग चलाने लगे तब सुलतान गोरी पचास (या पाँच सौ) शेख़ों के आगे चक्र चलाने वालों की चार पंक्तियाँ करके (पृथ्वीराज के) सामंतों को क्रोध पूर्वक (चारों ओर से) घेरने लगा। शूरों (=सामंतों) ने कोट बना लिया और (यह विचार कर कि युद्ध का) सार मृत्यु है [अर्थात् वीरगति पाकर मुक्ति मिल जायगी] वे (अपने मन में प्रसन्नता के कारण) हुलस उठे। (चारों और युद्ध करने की) अग्नि (ज्वाला) धधक रहीं थीं परन्तु वे (अपने स्थान से किंचित् मात्र) नहीं हिले, उनका फद्भर (उनकी रोक) दृढ़ कोट [=दुर्ग] सदृश हो गया। समर भूमि में वीरों का रास (नृत्य) होने लगा परन्तु (पृथ्वीराज के सामंतों का) कोट [=व्यूह] धैर्य का सार बन गया।
शब्दार्थ—रू॰ ८६—अद्ध अद्ध जोजनह मीर उड़ि संगा फेरी=मीर आधे योजन इधर उधर दौड़ कर साँग चलाने लगे। [इस में कुछ अतिशयोक्ति मालूम होगी परन्तु यह तो सुलतान गौरी के लड़ने का और अपने विपक्षी को एक प्रकार से धोखा देने का एक ढंग था। Finisata, (Briggs) Vol. I, (1829), pp. 183-84]। अद्भा=आधा। जोजनह<सं॰ योजन