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छोड़ने लगती है। जब ज़ोर पर आता है तो चलाने वाला हाथ से वाण को छोड़ देता है उस समय वह हाथी को भी वेध डालता है और जहाँ तक उक्त थैला पट नहीं पड़ता तहाँ तक सीधा जाता है फिर आप ही आप बड़े ज़ोर से चक्कर खाने लगता है। थैले के छरें मील भर पर्यन्त विथर कर सैकड़ों आदमियों को बेकाम कर देते हैं। आगे यह किले और मैदान दोनों की लड़ाई में काम आता था।" रासो-सार, पृष्ठ ३२६। इसे अग्निवाण और वानगीर भी कहते थे। Plate No.III में नं॰ ६ कुहक बाण है।

छंद रसावला

मेलि साहं भरं। षग्ग षोले रुरं॥
हिंदु मेच्छं जुरं। मन्त जा जं भरं॥छं॰ १२९।
दुन्त कट्ढे करं। उप्पमा उप्परं॥
कंद[१] मीले जुरं। कोपि कठ्टे करं॥ छं॰ १३०।
कंध नं नं धरं। पंष जष्षं[२] फिरं॥
तर नषै करं। मेघ बुट्ढे बरं॥ छं॰ १३१।
आवधं संझरं। बङ्क तेयं करें॥
चंद बीजं वरं। अद्ध अद्धं धरं॥ छं॰ १३२।
बीय बन्धं धरं। कित्ति जंपै सरं॥
अस्सु दुस्ढै फिर। रंभ बंछै वरं॥ छं॰ १३३।
थान थानं नरं। धार धारं तुदं॥
भुंम बासं छुटं।... ... ...॥छं॰ १३४।
साह गोरी बरं। षग्ग षोले करं॥
... ... ...। ... ... ...॥छं॰ १३५। रू॰ ८७।

भावार्थ—रू॰ ८७—

शाह के योद्धा तेज़ तलवारें निकालकर बढ़े। हिन्दू और म्लेक्ष एक दूसरे से भिड़ गये। जिस वीर को जैसा समझ पड़ा उसने वैसी किया। छं॰ १२९।

(किसी ने हाथियों के) दाँत हाथ से खींच लिये तो ऐसी उपमा जान पड़ी कि मानों भीलों ने क्रोधपूर्वक हाथ से कंद उखाड़ लिए हों [(या) किसी ने हाथियों के दाँत तोड़ दिये मानों भीलों ने कंद उखाड़ लिये हों और (किसी ने) क्रोध करके (हाथियों के) कर (सूँड) काट लिए]। छं॰ १३०।


  1. ना॰—केद
  2. ना॰—जष्ष।