पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/३८

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ह्माण्ड' रख दिया है । हे पहुसंग नरेश १ जयचन्द्र ), अपने भट्ट पर महतो कृपा की जो उसे 'बरद” कहकर महान विरुद दिया :

जिहि बरई चढदि कै । गंग सिर धरिय गवरि हर ।।
सहस म संपेषि | हार किन्न भुजंग गए ।।
तिहिं भुजंग फन जोर । झोलि ररुपी वसुमत्तिय ।।
वसुमती उपरै । मेर गिरि सिंध संपत्तिय ।।
ब्रहमंड मंड़ मंडिय सकता | धवल कंध करता पुरस ।।
गरुअत्त विरद पहुपंग दिय । कृपा करिय भइह सरिस ।। ५८७, स०६१


यह व्यंग्यात्मक हास्य का अनूठा स्थल है

आश्चर्य पैदा करने वाले स्थत रासो में अनेक हैं । श्रापवश मनुष्य का मृत्यु के उपरांत असुर हो जाना और असुर का असुरी स्वभाव अश मनुष्यों को ढूंढ-ढूंढ कर खाना, बीरों का वशीकरण, देवी की सिद्धि और साक्षात्कार, गड़े खजाने से दैत्य और पुतली का निकलना, मंत्र-तंत्र की विलक्षण करामातें, वरुण के वीरों की उछल-कूद, वीर गति पाने वालों को अप्सराओं द्वारा वरण, आत्माशों का भिन्न तोक-वास, कब्ध का युद्ध श्रादि इसी प्रकरण के प्रसंग हैं। कवि ने इनका वर्णन इस प्रकार किया है जैसे थे अवटित घटनायें न होकर सत्य और साधारण हो । वीसलदेव की रथी से ढंढो दानव का जन्म देखिये :

राज मरन उप्पनो । सब्बै जन सोच उपन्नौ ।।
पट' रागिनि पावार । निकसि तबही सत किन्नौ ।।
तिन मुघ इम उश्चरयौ । होइ जदवनि सपुतय ।।
सो असीस इह फुरो। तुम्म भोगवटु धरतिये ।।
जिन रथी मद्धि ऊ असुर । धषे ज्वाल तिन मुध विषय ।।
नर भषय जहाँ लसकर सहर । मिलै मनिष ते ते भषये ॥५,११,स०१

वीरगाथा-काव्य होने के कारण शांत रस का रासो में प्राय: अभाव सा ही पाया जाता हैं और वीर रस का विरोधी होने के कारण भी उसमें निर्वेद की व्यंजना के लिये अबसर नहीं हैं । युद्धोपरांत' एक स्थल पर शिव और पार्वती के वलर-प्रसंग में जन्म-मरण की व्याख्या करते हुए, कर्मानुसार जीव के जन्म-बंधन में पड़ने और आत्मा का माथी आदि प्रपंचोपशर्म से निराकार अद्वैत ब्रह्म मैं समाहित होने का उल्लेख है। मम्मट और विश्वनाथ की काव्य-कसौटी पर रासो का यही प्रसंग शम् का सिद्ध होता हैं। इस रस का संकेत करने वाले दो प्रसंग और हैं--एक तो ढुंढा दान की