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कवित्त

षां हुसेन ढरि पर्यौ, अस्व फुनि पर्यौ सार बहि।
झुज्झ[१] फेरि सत सीव, षांन उजवक्क षेत्त[२]रहि॥
षां तातार मारूफ, षांन षांन घट घुम्मै।
तब गोरी सुबिहांन,आइ दुज्जन मुष झुम्मै॥
कर तेग झल्लि मुट्ठिय[३]सुवर, नहीं सउरतआनह पन करी।
आदि हार दीह पलटे सुबर, तबहिं साहि तब फिर पुक्करी॥छं॰ १४५|रू॰ ९२।

भावार्थ—रू॰ ९१—रंभा ने कहा कि मेनका सुनो, "उस जुथ्थ (लाशों के ढेर) में उस (अपने कंतु) को मत खोजो। उसे शत्रु के संमुख न झुका जानकर ग्रह से रथ जुत कर आया था। ग्रह से रथ जुत कर आया और (उसे बिठा कर) ब्रह्म और शिव लोक छोड़ता हुआ चला गया। अब या तो वह विष्णु लोक में वास करेगा या सूर्य के शरीर में अपना शरीर मिलाकर शोभित होगा (अर्थात् सूर्य लोक में वास करेगा)। सुंदर इंद्र बधू (इन्द्राणी) प्रसन्नता से रोमांचित हो, (अपने माथे पर) वश में करने वाला (सिंदूर) बिंदु लगा कर उसकी पूजा करने गई हैं। उस (वीर की उपमा नहीं दी जा सकती, वैसा कोई न हुआ है और न कहीं अवतार (जन्म) लेगा [या—उसकी बराबरी के योग्य जन्मा हुआ कोई नहीं है]।"

नोट—अगले दिन युद्ध आरंभ हो गया—

रू॰ ९२—(गोरी का योद्धा) हुसेन ख़ाँ (आक्रमण करने के लिये आगे) दौड़ पड़ा और (उसके पीछे) घोड़सवार सेना चल पड़ी। युद्ध पलटने के लिये [या—युद्ध से भागने वालों को पलटने के लिये या—हारता युद्ध जीतने के लिये] उजबक्क ख़ाँ रणक्षेत्र में (पीछे) सीमा बनाये (अर्थात् रोक लगाये) डटा रहा। तातार मारूक ख़ाँ तथा अन्य ख़ान एक साथ घूमने लगे, (उसी समय) ग़ोरी भी शीघ्रता से आगे बढ़ कर शत्रु (पृथ्वीराज की सेना) के सामने झूमने लगा। सुभट (ग़ोरी) ने हाथ में तलवार लेकर मुट्ठी

घुमाते हुए प्रण किया कि 'मैं सुलतान न रहूँगा यदि आज (का दिन) पलटने (अर्थात् शाम) तक (शत्रु को) भलीभाँति पराजित न कर दूँगा (और इतना करने पर) तभी फिर शाह पुकारा जाऊँगा।'


  1. ना॰—शुझ्झ
  2. ना॰—पेत
  3. मो॰—पुट्ठिय।