पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/३७८

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शब्दार्थ---रु.० ६१---एरहु = हेरहु, खोजो जिन <जिन अध्ययन [हि० जनि] = मत, नहीं| भत= नहीं। चंद ने Double negatives का प्रयोग बहुधा किया है; उ० – 'न न'; रातो में इसकी भरमार है; वैसे ही यहाँ आया हुआ 'जिनमत' भी है)। रि, शत्रु। अनंति = (अ+ नमति) न भुकने वाला। ग्रह=घर। [ऋह से यहाँ विष्णु लोक से तात्पर्य है जहाँ से बारगति पाने वालों के लिये विमान आते हैं]। छंडी=छोड़ता हुआ। (कै)=या तो। (कै) भान तन सो तन मंडी =या तो सूर्य के शरीर में अपना शरीर मिला देगा अर्थात् सूर्य लोक में वास करेगा। भान < मानु सूर्य। रोमंचि=रोमांचित हो; [रोमांच अधिक प्रसन्नता, भय, दुःख दि के वेग में होता है। यहाँ इन्द्राणी इतना बड़ा वीर पाकर प्रसन्नता से रोमां- चित हो उठीं थीं]। तिलंक = तिलक, (यहाँ सिंदूर बिंदु से तात्पर्य है जिसे स्त्रियाँ अपने माथे पर लगाती हैं)। बसि < वश। वरी= श्रेष्ठ, सुंदरी (--वर का स्त्रीलिङ्गरूप 'वरी' है)। तिलक बसि=वश में करने वाला बिंदु [नोट - इस लाल बिंदु में पुरुषों को आकर्षित करने की बड़ी शक्ति होती है और इसके लगाने से स्त्रियों की सुंदरता अत्यधिक बढ़ जाती है। इस बिंदु की महिमा कवि बिहारीलाल ने इस प्रकार बखानी है--

कहत सबै बेंदी दिये,आँक दस गुनी होत।

तिम शिलार बेंदी दिये,अगनित होत उदोत।।


इंद्र बधू = ( सं० शचि )---इंद्र की पत्नी इंद्राणी,दानयराज पुलोमा की कन्या थीं। उनके पर्यायवाची नाम — सन्ची, ऐंड्री, पुलोमजा, माहेन्द्री, जयवाहिनी भी हैं। ओपंग जोग= उपमा देने के योग्य । न न हुबहु नहीं हुआ। बहुरि (या बहुर) [देशज] [हिं० बहुरना < सं० प्रघूर्णन] उ०---बहुर लाल कहि बच्छ कहि; आगे चले बहुरि रघुराई-- राम चरित मानस । नन को न न पढ़ना चाहिये जो (Double negatives) हैं । अवतार (रत येति अवतारः )---जन्म। अवतार न बर है कहीं = (१)---न कहीं जन्म लेगा ( २ ) जन्मा हुआ कहीं नहीं है।

रू० ९२–--ढरि परथौ=दौड़ पड़ा ; [ययाँ हरि परथौ का अर्थ मारा गया लेना उचित न होगा क्योंकि अगले रू०६४ में हमें फिर हुसेन खाँ का हाल मिलता है]। अश्व सारव सवार= घोड़सवार सेना से तात्पर्य है। सार= शक्ति।पुनि <० पुनः फिर पथौ बहि= बह पड़ी