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कठोर तपस्या और दूसरा दिल्लीश्वर अनंगपाल का वैराग्य । ढुंढा ने जीवन्मुक्ति हेतु तपस्या नहीं की थी और अनंगपाल का वैराग्य सात्विक न था, वे सर्वस्व त्याग कर विरक्त हुए परन्तु उस त्यागी हुई वस्तु की प्राप्ति हेतु फिर झुके, युद्ध किया, पराजित हुए, तब पुनः तपस्या करने चले गये--अस्तु ये दोनों स्थल शांत रस के विधायक नहीं कहे जा सकते ।

वीर और रौद्र रस प्रधान रासो में शृङ्गार की स्थिति गौण नहीं है । युद्ध-वीर स्वभावतः रति-प्रमी पाये गये हैं। किसी की रूपवती कन्या का समाचार पाकर अथवा कन्या द्वारा उसे अपने माता-पिता की इच्छा के विपरीत आकर वर करने का संदेश पाकर उक्त कन्या का अपहरण करके उसके पक्ष वालों से भयंकर युद्ध और इस युद्ध में विजयी होकर कन्या के पाणिग्रहण तथा प्रथम मिलन आदि के वर्णनों में हमें वियोग और संयौ के . चित्र मिलते हैं ! नायक और नायिका के परस्पर रूप, गुण आदि श्रवण-मात्र से अनुराग और तज्जनित वियोग कष्ट के वर्णन काम-पीड़ा के प्रतीक हैं। संयोग के अनंतर वियोग का वर्णन आचार्यों ने भी स्वीकार किया हैं परन्तु संयोग से पूर्व ही वियोग का कष्ट वांछित प्रेमी या प्रेमिका को प्राप्त करने में बाधायें और कामोत्त जना को लेकर ही पैदा होता है। वैसे नल-दमयन्ती, कृष्ण-रुक्मिणी, ऊषा-अनिरुद्ध आदि के प्रेम की परंपरा का पालन भी रासो में होना असंभव नहीं है।

विवाह के पूर्व और उपरांत सुन्दर राजकुमारियों के नख-शिख वर्णन तदुपरांत काम-क्रीड़ा और सहवास यद्यपि ङ्गार रस के ही अतर्गत हैं। परन्तु उनमें वस्तुस्थिति का निर्देश संकेत द्वारा न होने के कारण कहींकहीं अश्लीलत्व दो भी आ गया है। यह रति भाव क्या हैं, केवल उद्दाम घासनों का नग्न चित्रण ही न ! इन स्थलों को पढ़ते ही उस युग की विलासिता का चित्र सामने आ जाता है। नायिका भेद को दृष्टिगत करके काव्य का प्रणयने नहीं किया गया है, फिर भी नवोदा, स्वाधीनपतिका, अभिसारिका अादि अपने स्वाभाविक रूप में दिखाई पड़ जाती हैं । श्रृंगार बर्णन में संभौर की प्रधानता हैं। नवज्ज खंड' का बट-ऋतु-वर्णन वियोग के भिस संयोग का आह्वान कराने वाला है। विप्रलम्भ का एक विशिष्ट स्थल हैं संयोगिता से पृथ्वीराज की प्रथम वियोग और अंतिम मिलन । इस प्रसंग का आदि और अंत परंपरा-भुके हैं परन्तु इसका निम्न वर्णन अति सार्मिक है।