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क्रोध सभक उठा। उन्होंने कहा कि मैं ग़ोरी को फिर बाँध लूँ तभी सोमेश्वर का बेटा हूँ (रू॰ ४५)। चंद्राकार व्यूह में खड़े हुए चौहान के सैनिकों ने प्रतिज्ञा की कि सुलतान की सेना को छिन्न-भिन्न करके शाह को बाँध लेंगे (रू॰ ४६)। पंचमी तिथि मंगलवार को प्रातःकाल क्रूर और बलवान ग्रह (मंगल) के उदय होने पर महाराज पृथ्वीराज ने (ग़ोरी से मोर्चा लेने के लिये) चढ़ाई बोल दी (रू॰ ४७)। नगाड़ों के ज़ोर-ज़ोर बजते ही हाथियों के बंटे घनघना उठे, वीर गरजने लगे। आकाश में धूल छा गई जिससे अँधेरा हो गया (रू॰ ५०)। सुलतान के दल वालों ने (चौहान की सेना के) लोहे के चमकते हुए बाणों को देखकर अनुमान किया कि क्या गरदिश ने चक्कर खाया है जो रात को आया जानकर तारे निकल आये हैं (रू॰ ५३)। दोनों ओर की सेनायें काले बादलों के समान एक दूसरे से भिड़ गईं (रू॰ ५६) चित्रांगी रावर समरसिंह अपने वायु वेगी अश्व पर चढ़ कर शत्रुओं के सिर पत्तों सदृश तोड़ता हुआ आगे बढ़ा। मेवाड़पति के आक्रमण ने सुलतान की सेना में धूल उड़ा दी (रू॰ ५७)। रावर के पीछे क्रोधित जैत पँवार था और जैत के पीछे चामंडराय और हुसेन ख़ाँ थे। चामंड और हुसेन ने हाथियों पर चढ़कर सुलतान की चतुरंगिणी सेना को व्याकुल कर दिया तथा धाराधिपति भट्टी ने ग़ोरी के सैनिकों को उखाड़ फेंका (रू॰ ५८)। सेनापति जैत की अध्यक्षता में चौहान की सेना चन्द्रव्यूह बनाकर लड़ रही थी (रू॰ ५९)। कबंध नाचते थे, कटे हुए सर चिल्लाते थे, साँगें घुस रही थीं, तलवारों से तलवारें बज रही थीं, भैरव नाच रहे थे, गण ताल दे रहे थे। भयानक युद्ध होता रहा और पराक्रमी महाराज पृथ्वीराज क्रोधपूर्वक ग़ोरी से भिड़े रहे (रू॰ ६१)। यह देखकर सुभट ग़ोरी का साहस भंग हो गया। तातार मारूफ़ ख़ाँ ने उसे यह कहकर प्रबोधा कि मेरे रहते सुलतान पर आपत्ति नहीं आ सकती (रू॰ ६२)। सोलंकी माधवराय का खिलची ख़ाँ से मुक़ाबिला पड़ा। लड़ते लड़ते सोलंकी की तलवार टूट गई और अनेक शत्रुओं ने घेरकर अधर्म युद्ध से उसे मार डाला (रू॰ ६५)। ग़ोरी की सेना समुद्र की भाँति गरजने लगी। तब गुरुअ गोइंद आगे बढ़ा जिसे यवनों ने विनष्ट कर दिया (रू॰ ६६)। गरुअ गोइंद के पश्चात् शत्रुओं को युद्धाग्नि की आहुति देकर पतंग-जयसिंह भी पंचत्व को प्राप्त हुआ (रू॰ ६७)। (भान) पुंडीर को चारों ओर से घेर कर सुलतान की सेना ने उसके शिरस्त्राण के टुकड़े टुकड़े कर डाले। वह गिरता पड़ता भिड़ा रहा और मारे जाने पर उसका कबंध पाँच पल तक खड़ा रहा जिसे देखकर सुरलोक में जय जय का