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धर घ्यार बज्जिरी विषम । हलिग हिंदु दल हाल ।।
दुतिय चंद पूनिम जिमे । बर वियोग बढि बाल ।।
वर वियोग बढ़ि बाल । लाल प्रीतम कर छौट्टौ ।।
है कारन हा कंत । स असु जानि न फुद्दौ ।।
देपंत नैन सुझझै न दिसि । परिय भूमि संथार ।।
संजोगी जोगिन भई । जब बज्जिग घरियार ॥६४३

उपर्युक्त छंद में विषम’, ‘देत नैन सुझझै न दिसि’ और ‘संजोगी जोगिन' बड़े ही सार्थक प्रयोग हैं । निर्जीव वस्तु घड़ियाल अथवा उसके शब्द को किसी की समता-विषमता से क्या प्रयोजन हो सकता था परन्तु प्रियतम के प्रवास-हैतुक-वियोग को निर्दिटि के कारण लक्षणा का आरोप करके कवि ने संयोगिता की मानसिक अवस्था में विषमता घटित करके उसे वियोगावस्था का प्रारंभिक चरण बल्ला दिया है। वियोग के इस प्रकरण में प्रवत्यतप्रेयसी संयोगिता के वर्तमान-प्रवास-हेतुक-वियोग का संकेत करके कवि ने उस वियोगिनी के भूत-प्रवास-हेतुक-विग्नतम्भ का बड़ा ही मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। दोनों प्रकार के विथोगों की मिलन सन्ध्या बड़े कौशल से प्रस्तुत की गई है।

इसके उपरांत युगों का अनुभूत वर्णन है कि वही वस्तु संयोग में सुखद परन्तु वियोग में दुखद हो जाती है ।

वहीं रत्ति पावस । वही मघवान धनुष्यं ।।
वही चपल चमकत है । वही वगपंत निरध्धं ।
वहीं घटा घनघोर । वही पप्पीह मर सुर ॥
वही जमी असमान । वही रवि ससि निसि वासूर ।।
वेइ अवास जुग्गिनि पुरह । बेई सहचरि मंडलिय ।।
संजोगि पर्थपति कैत बिन । मुहि न कछू लग्गत रलिय ।। ६४५, ०६६

कहीं कहीं संभोग शृङ्गार के अनुपम चित्र कवि ने खींचे हैं। '{श्वेत हस्ती) ऐरावत इन्द्र के अंकुश के प्रहार से भयभीत होकर संयोगिता के वक्षदेश में प्रविष्ट होकर बिहार करती.था, उसका कुंभस्थल उभर कर उनके उन्नत उरोजों के रूप में प्रगट हुआ, जिनके ऊपर की श्यामता उसकी सह-जले था । शुक ने कहा कि इंन्च्छिनी सुनो, विधि का विधान नहीं टाला जा सकता, रति-काल में पृथ्वीराज का कर-कोश ही कुश बन जाता है' :

ऐरापति भय मानि । ईद राज बाग प्रहारं ।।
उर सँजोगि रस महिः । रह्यो दबि कृरत विहारं ।।