पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/४१

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कुच उच्च जनु प्रगटि । उकति कुंभस्थल आइय ।।
तिङि ऊपर स्थानता। दान सोभा दसायइय ।।
बिधिना निर्भत भिड्दै वन । कीर कहत सुनि इछनिय ।।
मन मश्थ समय प्रथिरार्ज कर । करज कोस अंकुस बनिये ।।
१५१, स० ६२ ।


यहाँ ‘ऐरावत” कहकर संयोगिता के शारीरिक वर्ण की सूचना दी। गई है और हाथी के मदजल' का कृष्ण रंग बड़े ढंग से आरोदित किया गया है तथा लक्षणा से मद जल' शब्द मुग्धा, ज्ञात-वना, विश्रब्ध-नवोढ़ी राजकुमारी के मदमाते यौवन की ओर भी ध्यान आकृष्ट करता है । उक्ति अनूठी है ।

शोक के प्रसंग सौ में इने-गिने हैं । कुमधञ नरेश के भाई वालुकाराव की मृत्यु पर अशुभ त्वम देखने के उपरांत उसकी स्त्री का विलाप, कन्नौज-युद्ध में प्रमुख सामंतों के मारे जाने पर पृथ्वीराज का शोक, ग़ज़नी के कारागार में बंदी पृथ्वीराज का नेत्र विहीन किये जाने के उपरांत पश्चाताप तथा अंतिम युद्ध का परिणाम वीरभद्र द्वारा सुनकर चंद कवि का दु:ख इसी प्रकरण के हैं परन्तु कुरुश का सबसे प्रधान स्थल सती होने वाला दृश्य । है जो इतना शांत और गंभीर है कि हृदय पर एक वीतराग त्याग का प्रभाव डाले बिना नहीं रहती । मरण-महोत्सव की परम उल्लास और आतुरता से प्रतीक्षा करने वाले उस सामन्त युग में विशेष रूप से झुत्राणियों में सती प्रथा .. समादृत थी। उनके लिये अग्नि-पथ, प्रेम-पथ का विधान था। वीर हिंदू नारी की आत्मोल्लास से जलती हुई अग्नि-चिताज्यों में प्रवेश परम प्रशान्त पर अति मर्म-भेदी है । आत्मोत्सर्ग की यह पूर्णं आहुति स्वतंत्र भारत की हिंदू ललना के चरित्र के विशेषता थी। स्वतंत्रता की महान देन रासो-काल में स्त्रियों के इस अात्म : वलिदान के रूप में सड़ढ़ थी। एक दृश्य देखिये-~तरुणियों ने नाना प्रकार के दान दिये और सामंत तथा शुर योद्धा उनके हितैषी लोक में पहुँचाने के लिये उनके घोड़ों की रासे पकड़ कर चल दिये। इन बालाझों ने प्रज्वलित हुतासन में गमन करने का अपने चित्त में विचार किया और प्रेम. को श्रेष्ठ ठहरा कर, उसका निर्वाह करने के लिये वे चल दीं। उज्वल ज्वाला आकाश में मिल गई। प्रत्येक दिशा में ह-हर शब्द हो उठा}, जहाँ-जहाँ जिस लोक को उनके स्वामी गये थे वहीं . उनकी पतिव्रता पतिपरायणायें जाकर मिल गई' :