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विविह तरुने दिय दान । अवर सामंत सूर भर ।।
अप्प अस्सह्य लीय ! मिलिय रह हितधाम धर ।।
चित चितै र रवनि । गवनि पविक प्रज्जीरिय ।।
प्रेम प्रीति किय प्रेम । नेम येसह प्रति पारिय ।।
उज्जलिथ झाले आयास मिलि । हर हर सुर हर गम भौ ।।
जहं जहां सुबास निज ‘कंत किय । तहं तहां तिय पिय मिलन भौ ।।१६२४, स० ६६ ।

परिस्थिति विशेष में नव रसों के एक साथ उद्रेक कराने की सिद्धि भी रासोकार ने कई स्थलों पर विभिन्न प्रसंगों में दिखाई है। कन्नौज-दरबार छद्म वेशी पृथ्वीराज को पहिचान कर सुन्दरी दासी कर्णाटकी ने लज्जा से बँधट खींच लिया परन्तु चंद' के इशारे से तुरंत ही उसे पलट दिया । इस पूँघट खोलने और बंद करने के व्यापार मात्र ने पंग-दरबार में नवरस उत्पन्न कर दिये । “कभधज्ज ( जयचंद्र) अाश्चर्य में पड़ गये, चौहान ( पृथ्वीराज ) ( अवचनात्मक रूप से ) हँस पड़े, संभरेश के प्रति दया भाव ने ( कर्णाटकी के चित्र में ) करुण रस पैदा किया, कवि चंद रोष से भर गया, वीर कुमार वीभत्स रस में अप्लाबित हुआ, शूर गण ( युद्ध होना अनिवार्य देख } वीर रस से भर गये, राज-प्रसाद के गवाक्षों से झाँकती हुई बालाओं के नेत्रों में ( खबास वेश-धारी कमनीय पृथ्वीराज को देखकर ) शृङ्गार पैदा हुअा, लोहा लेगरी राय के चित्त में निर्वेद हुआ और उसके सुदृढ़ शरीर तथा बलाबल को देखकर विपक्षी भय से आपूरित हुए। पहुपंग ने पनि क्या मॅगाये नर्वो रस सिद्ध कर दिये :

बर अद्भुत कम धज्ज । हास चहुअन उपन्नौ ।।
करुना दिसि संभरी । चंद बर रुद्र दिपन्नौ ।।
बीभछ वीर कुमार ! बीर वर सुभट विराजै ।।
गोषबाल झषतह । द्रिगन सिंगार सु राजै ।।
संभयौं सन्त रस दिष्पि बर। लोहा लेगरि बीर कौ ।।
मंगाई पान पहुर्पग्र बर । भय भव रस नव सीर कौ ।।।
७२०, स० ६१

इसके अतिरिक्त युद्ध और रति काल में विभिन्न रस की अवतार भी कवि ने दिखाई है । उल्लेख अलंकार की सहायता से भिन्न रसों : क. स्फुरण अनायास श्रीमद्भागवत् के इस काव्य-कौशल वाले निम्न श्लोक का स्मर कर देती है :