पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/४१३

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( १७५ ) स्वयं आसक्ति रहित और निर्विकार हैं । ग्रज्ञान का नाश करने में जो मंत्र स्वरूप हैं, बाल चन्द्र जिनके ललाट पर ( सुशोभित ) है, ( ऐसे चन्द्रशेखर को मेरा प्रणाम है.) । शैव और वैष्णवों का द्वंद मिटाने का भी कवि ने प्रयत्न किया है- करिय भक्ति कवि चद हरि हर जंपिय इह भाइ | ईश स्याम जू जू बकह नरक परंतह जाइ ॥ अर्थात - कवि चंद, हरि हर ( = विष्णु और शिव ) की भक्ति करो, इस भाव से स्तुति जप करो । ज्यों ज्यों ईश श्याम (= हर और हरि ) का नाम कहोगे (त्यों सों) नरक दूर होता जायेगा । परापरतरं यान्ति नारायणपरवाणं । न ते तत्र गमिष्यन्ति ये दुष्यन्ति महेश्वरम् ॥ अर्थात - विष्णु भगवान की आराधना करने वाले उच्च से उच्च स्थान ( अर्थात् बैकुंठ, गोलोक या मोक्ष स्थान ) को प्राप्त होते हैं, परन्तु महेश्वर से द्वेष रखने वाले विष्णु भक्त भी उस स्थान पर नहीं पहुँचेंगे । हरि और हर की समान भाव से स्तुति करने वाले और इन दोनों में अंतर न समझने वाले विद्यापति ने उन्हें 'एक सरीर लेल दुइ बास' (अर्थात् एक शरीर से बैकुंठ और कैलाश इन दो स्थानों में रहने वाला ) कहकर विपरीत स्वभाव वाले नारायण और शूलपाणि को कभी पीताम्बर और कभी वाघाम्बर धारण करने वाला, कभी चतुर्भुज और कभा पंचानन, कभी गोकुल में गाय चराने वाला और कभी डमरू बजाकर भीख माँगने वाला, कभी वामन रूप धारण करके राजा बलि से दान की याचना करने वाला और कभी काँखों और कानों में भभूत मलने वाला आदि कहकर शैव . और वैष्णव विरोध मिटाने का उद्योग किया है । 'रामचरित मानस' में तुलसी ने अपने काव्य कौशल का एक प्रमुख अंश इन विभिन्न दर्शनों के समन्वय में लगाया है तथा 'शिव द्रोही मम दास कहावै । सो नर मोहिं सपनेहु नहिं भावे'- इत्यादि न जाने कितने तर्क पूर्ण प्रतिपादन किए हैं । विद्यापति और तुलसी से शतियों पूर्व बंद कवि के शैव और वैष्णव विरोध मिटाने के कुशल प्रयत्न ऐतिहासिक मात्र ही नहीं परम इलाचनीय भी हैं । रासो में शंकर युद्ध भूमि के दर्शक तथा कभी हिंदू योद्धाओं को प्रोत्साहित करने वाले और कभी मृत वीरों के सिर वड़े चाव से अपनी मुंडमाला में डालने वाले चित्रित किये गए, }