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मल्लीनभिशनिवाण नरवरः. स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान,
गौपानां स्वजनोऽसतरं क्षितिभुजां शास्ता स्वपित्रोः शिशुः ।
मृत्युभोजपते विराडविदुषां तत्वं परं योगिनाम्‚
वृष्णीनां परदेवतेति विदित रंगं गतः साग्रज: ।।१७-४३-१३

तुलसी और केशव ने भी इस कौशल का परिचय दिया है।

अलंकार

अलंकार का प्रयोग भाव-सौन्दर्य की वृद्धि हेतु किया जाता है । शब्दालंकारों में रात में अनुप्रास और थर्मक का प्रयोग बहुलता से मिलता है । अनुप्रासों के सभी शास्त्रीय भेदों के उदाहरण इस काव्य में मिल जाते हैं। कुछ स्थल देखिये :

(१) जंग जुरन जालिम जुझार भुज सार भार भु' ।।
(२) चढ़ि कंध कर्मधन जोगिनी । सद्द मद्द उनमद्द फिरि ।।
(३) त्रैनैनं त्रिजटेब सीस त्रितयं त्रैरूप त्रैसूलयं ।।

बाच्या विचित्रता से रिक़ शब्दाडम्बर-मात्र वाला वर्णानुप्रास भी कहीं-कहीं दृष्टिगोचर हो जाता है ।

यमक का प्रयोग अनेक स्थलों पर है परन्तु संयम के साथ :——

(१) सारंग रुकि सारंग हने । सारंग करनि करषि ।।
(२) धवल वृषभ चढ़ि धवल । धवल बंधे सु ब्रह्म वसि ।।
(३) रन रत्तौ चिंत रत्त । वस्त्र रत्तेत खग्र रत ।।
ह्य गय रत्तै रत्त । मोह सौ रत्त वीर रत ।।
धर रत्तै पत रत्त । रूक रत्ते विरुझानं ।।
त वीर' पलचर सु त । पिंड रत्ती हिंय साने ।।

अर्थालंकारों के अंतर्गत जहाँ कवि ने काव्य-परंपरा का ध्यान रखते हुए प्रसिद्ध उपमानों का प्रयोग किया है वहाँ अप्रचलित और अप्रसिद्ध उपमान भी उसने साहस के साथ रखे हैं। राजस्थान के कवियों में यह परम सहनीय उद्योग विशेष रूप से उल्लेखनीय है । रासोकार के अप्रचलित अप्रस्तुत कहाँ क्लिष्ट होने के कारण और कहीं लोक में उतनी प्रसिद्धि न पाने के कारण अर्थ को सरल करने के प्रयास में उसे दुर्बोध भी कर बैठे हैं। कुछ उदाहरण दिये जाते हैं;

(१) जस्थौ सांस फूल जथौ मनिबद्ध । उयौ गुरदेव किधौं निसि अद्ध ।।

[अर्थात् मणि-ज़टित शीश फुल ऐसा भासित हो रहा थF मानों अर्द्धरात्रि में वृहस्पति का उदय हुआ हो । उत्प्रेक्षा. बड़ी अनुपम है परन्