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बृहस्पति ग्रंह को आकाश-मंडल में पहिचानने वालों की संख्या आमीण जन को कुछ अंशों में छोड़कर नगरों के शिक्षित जन-समुदाय में अति कम है । रासो काल में अब घड़ियाँ नहीं थीं भारत की अधिकांश जनता का ग्रहों और नक्षत्रों से परिचित रहना स्वाभाविक था श्रस्त अपने युग में उपर्युक्त उत्प्रेक्षा बड़ी ही सार्थक रही होगी । ]

(२) जगमगत कंठ सिरि कंठ केस। मनु अई' ग्रह चर्पि सीस बैसि ।।
(३) अह अइ सतारक पीत पगे । मनों से तिकै उर भांन उगे ।।

परन्तु नवीन उपमान अपनी अर्थ -सुलभता और लोक-प्रसिद्धि के कारण अर्थ-गौरव की भी निःसन्देह वृद्धि कर सके हैं :

(१) मुर्ष कढूिढन पूँघट अस्सु बली । मनों हूँघट ६ कुल बद्ध चली ।।
(२) यों मिले सब्ब परिगह नृपति । ज्यों जत झर बोहिथ्य कटि।।(३) जनु छैलनि कुलटा भिलै । बहुत दिवस रस अंक ।।
(४) दिपंत मेन लढरार्थ ! जिहाज जोग भग्यं ।।
कहीं-कहीं ग्रामीण प्रयोग भी मिलते हैं । यथा :
(१) सुर असुर मिति जल फोरयं ।।
(२) साज सज्ज चल्यौ सु फुनि जनु कलौ दरियाव ।।

उपसा के प्रयोगों द्वारा रासोकार ने अपना अभीष्ट सिद्ध करने में अपूर्वं सफलता प्राप्त की है। एक निरवथवा-लुप्तम-मालोपमा देखिये :

इसौ कन्ह' चहुन । जिसौ भारथ्थ भीम बर ॥
इसौ कन्ह चहुअन । जिसौ द्रोना-चारिज बर।।
इसौ कन्ह चहुअन । जिसौ दससीस बीस मुज़ ।।
इसौ कन्ह चहुमान है जिसौ झवतार धारि सुज ।।
बुध बेर इस्स तु जु रिन । सिंघ तुट्टि लषि सिधनिये ।।
प्रथिराज कुवर साहाय कज । दुरजोधन अवतार लिया ।।

उपमा के बाद रासो में रूपकू का स्थान है । वैसे तो उके सभी विभेद मिलते हैं परन्तु कवि को सांग-रूपक संभवत: विशेष प्रिय था क्योंकि इसके सहारे पुरातन कथा-सूत्रों, प्राकृतिक-सौन्दर्य और मौलिक उद्भावनाओं को साकारता प्रदान की जा सकती थी अतएव यह मोह छोड़ सकना इसे रुचिकर न रहा होगा। इसके प्रयोग में उसे आशातीत सफलता भी प्राप्त हुई है :

(१) बाल नाल ' सरिता उतरः । अनंग अंग सुज ॥
रूप से तळ मोहन तड़ाग । अम भए कटच्छि दुज ।।