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प्रेमपूर, विस्तार । जय मनसा विध्वंसन ।।
दुति अहं नेह अथाह । चित्त करघुन पिय तुडून ।।
मन विसुद्ध बोहिथ्थ अरे । नहिं थिर चित जोगिंद तिहि ।।
उत्तरन पार पावै नहीं । मीन तलफ लगि मत्त विहिं ।।

[अर्थात्व——ह बाला उत्तंग सरिता है, रूप उसका तट है, आकर्षण रूपी तड़ाग (कंड) हैं, कटाक्ष रुपी वर हैं, प्रेम रूपी विस्तार है, योग्र रूपी मनसा (कामना) का वह विध्वंस करने वाली है, उसकी द्युति ही ग्राह (मकर) है, स्नेह रूपी अथाहता है, विशुद्ध मन रूपी बोहित पर आरूढ़ योगीन्द्र भी चंचल चित्त हो जाते हैं और उसके पार नहीं जा पाते (अर्थात् उसका अतिक्रमण नहीं कर पाते) तथा मीन सदृश तड़पते हैं ।]

(२) सह महीव कब्बी । नव-नव कित्तीय संग्रहं ग्रंथं ।।
सागर सरिस तरेगी । बोहथ्थर्य उक्लियं चलिये ॥
काव्य समुद्र कवि चंद कृत । सुगति समप्पन ग्यान ॥
राजनीति बौहिथ सुफल। पार उतारन यान ।।

[अर्थात्क——वि के महान आशा रूपी सागर में उचाल तरंगें उठ रही हैं जिसमें उक्तिं रूपी बोहित (जहाज़) चलाये गये हैं ।

कवि चंद कृत काव्य रूपी समुद्र, ज्ञान रूपी मोती समर्पित करने वाला है और राजनीति रूपी बोहित उस काव्य रूपी. सागर से सफलता पूर्वक पार उतारने वाला योन है ।]

समस्त——वस्तु-सावयचों और एकदेश-विवर्ति-साधयों की स्वाभाविक रंजना आदि के काव्य-शास्त्र-ज्ञान की परिचायिका हैं। एक निरवयव रूपक भी देखिये :

चंद वदनि मृग नवनि । भेहि असित कोदंड बनि ।।
गंबर मंग तरलत, तरंग । बैनी भुअंग बनि ।।
कीर नास गु दिति । दसन दामिक दारसकन ।।
छीन लंक श्रीफल अधीन । क बरनं तन ।।
इच्छति भतार प्रथिराऊ तुहिं । अहनिसि पूजत सिव सकति ।।
अध तेरह बरस पदमिनी । हँस मनि पिष्पहुं । नृपति ।।

उत्प्रेक्षायों की रासो में भरमार है, परन्तु वे अत्यन्त सफल बन पड़ी हैं। रूए-शृङ्गारे और युद्ध-वर में स्त्प्रे क्षा की प्रचुरता सुसझनी चाहिये । प्रचलित-अप्रचलित, प्रसिद्ध-अप्रसिद्ध उधमानों का प्रयोग यहीं पर कवि ने जी खोलकर किया है । एक वाच्या-अनुक्त-विषय-वस्तूत्प्रेक्षा देखिये :