पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/४६

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छुटि स्नगमद कै काम छुटि। छुटि सुगंध की बास ।।
तुंग मनौ दो तन दियौ । कंचन घंभ प्रकास ।।

यहाँ स्व-खंभ को प्रकाशित करने वाले दो तुङ्गों की संभावना देखकर और उपमेय स्वरूप उरोजों को कथन न होने के कारण एकातिशयोक्ति का भ्रम न करना चाहिये ।

प्रतीयमाना-फलोत्प्रेक्षा और हेतुत्प्रेक्षा दोनों ही मिलती हैं। एक श्रसिद्धविषय-हेतुत्प्रेक्षा लीजिये :

सम नहीं इसिमती जोइ । छिन गरुअ छिन लधु होइ ।।
देषेत त्रीय सुरंग । तब भयौ काम अनंग ।।

यहाँ कवि का कथन है कि संयोगिता की संदरता देखकर ही कामदेव अनंग हो गया परन्तु लोक-प्रसिद्ध है कि काम के अनंग होने की कथा शिव द्वारा भत्स किए जाने वाली है।

राति-काल में संयोगिता के स्वेद कणों को लेकर कवि ने शुक-मुख द्वारा मयंक और भन्मथ तथा ( सूर्य ) किरणों और मुकुलित कलियों की सुन्दर उत्प्रेक्षा की है :

देषि बदन रति रहस । बुंद कम स्वेद सुभ्भ भर ।।
चंद किरन मनमथ । हथ्थ कुड्डे जनु डुकर्कर ।।
सुकवि चंद वरदाय । कहिंथ उप्पम श्रुति चालह ।।
मनौ भयंक मनमथ्थ । चंद पुज्यौ मुत्ताहय ।।
कर किरनि रहसि रति रंग दुति । प्रफुति जी कलि सुंदरिये ॥
सुक कहे सुकिय इंच्छिनि सुनव। मैं पंगानिय संदरिये ।।

कन्नौज के गंगा-तट पर मछलियाँ चुनाते समय पृथ्वीराज ने संयोगवशात् समीपस्थ महाराज जयचन्द्र के राज-प्रसाद के गवाक्ष पर एक अदभुत दृश्य देखी----हाथी के ऊपर सिंह है, सिंह के ऊपर दौ पर्वत हैं, पर्बतों के ऊपर भ्रमर हैं, भ्रमर के ऊपर शशि शोभित है, शशि थर एक शुक हैं, शुक के ऊपर एक मृग दिखाई देता है। सुपा के ऊपर कोदंड संधाने हुए कैदएँ बैठा है, फिर सर्प हैं, उन पर मयूर है और उस पर सुर्वण जटित अमूल्य हीरे हैं । देव-लोक के इस रूप को देखकर राजा धोखे (भ्रम) में पड़ गये :

कुंजर उप्पर सिघं । सिंघ उपर दोथ पब्बय ।।
पुब्बव उमर भ्रङ्ग । श्रङ्ग उप्पर : सुसि सुभ्भय ।।
ससि उप्पर इक : कीर। कीर उप्पर म्रग दिौ ।।
स्नग ऊपर कोचंड । संधि केंद्रप्प बवट्ठौ ।।