पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/४७

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अहि मयूर महि उप्परह। हेम सरिस हेमन जरयौ ।।
सुर भुअन छडि कवि चंद कहि । तिहि धौमैं राजन परयौ ।।

यह अपरूप और कोई नहीं, देव-लोक की छवि, युग की अनन्य सुंदरी, गजगामिनी, केहरि कटि वाली, मांसल और पुष्ट तथा शिरोदेश पर श्याम वर्ण के उरोजों वाली, चन्द्रवदनी, कीर-नासिका, मृगनयनी, धनुषाकार भृकुटियों और धनी बरौनियों वाली, अपने कृष्ण कुंतलों पर मणि जटित मुकुट धारण किये स्वयं राजकुमारी संयोगिता थी, जो स्वयम्वर के अवसर पर अपने पिता की इच्छा के विपरीत दिल्लीश्वर पृथ्वीराज की सुवर्गा प्रतिमा को तीन बार वरमाला पहिला चुकी थी तथा जिसके परिणाम स्वरूप इस महल में वंदिनी कर दी गई थी।

यहाँ अमालंकार के सहारे कान्यकुञ्ज की राजकुमारी के अंगों का सौन्दर्य चित्रित कर कवि चंद ने महाराज की भ्रान्ति का अपूर्व चित्रण किया है। आश्चर्य नही कि रासो के ऐसे प्रसंगों की चौदहवीं शताब्दी के मैथिल कोकित विद्यापति के स्त्री-सौंदर्य के स्थान पर पुरुष-रूप वर्णन के निम्न सदृश पदों की प्रेरणा में कुछ छाप रही हो :

ए सखि पेबल एक अपरूप ।
सुनइत मानब सपन सरूप ।।
कमल जुगल पर चाँद क माला ।
ता पर उपजल तरुन तुमाला ।।
तापर बेढ़लि बिजुरी-लता ।
कालिन्दी तट धीरे चलि जाती है।।
साखा सिखर सुधाकर पाँति ।
ताहि नब पल्लव अरुनक भाँति ॥
बिमल बिम्बफल जुगल बिकास ।
तापर कीर थीर करु बास् ।।
तापर चंचल खंजन जोर ।
तापर साँपिन झापल मोर ।।....

अतिशयोक्ति अलंकार में रूपकातिशयोक्ति के प्रयोगों का प्राधान्य हैं। कहीं बहे स्वतंत्र रूप में है और कहीं अन्य अलंकारों के साथ मिश्रित । एक स्थल देखिये :

अष्टे मंगलिक अरु सिध । नव निधि रत्न अपार ।।
पाटंबर अंमर बेसन दिवस नः सुमझहिं तर ॥