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जैसे विशाल काव्य में प्रयत्न करने पर प्रायः सभी अलंकारों के उदाहरणें मिलना असंभव नहीं है । इन विभिन्न शैलियों के माध्यम से कवि ने अपने काव्य की रस-निष्पत्ति में पूर्ण सहायता ली है। रस और अलंकार की सफल योजना को ही यह श्रेय है कि रासो के अनेक अंश मार्मिक, प्रभावशाली और मनोहर हो सके हैं।

छन्द

भारतीय छन्दों को संस्कृत (refined) और प्राकृत (popular) इन दो भागों में बाँटा जा सकता है । घहिली कोटि के छन्दों में वर्ण-गणना प्रधान होती है और दूसरों में मात्रा-गणना । वैदिक-छन्दों में बर्फ विचार प्रधान पाया जाता है और बुण मैं ह्रस्व या दीर्घ मात्रायें लगने से कोई अन्तर नहीं पड़ता जब कि इन्हीं छन्दों से विकसित होने वाले संस्कृत-छन्दों में वर्ण-विचार की प्रधानता के साथ कुछ मात्रिक-विचार भी सन्निहित रहता है। कृत-छन्द अपने प्रारम्भिक काल से ही मात्रा वृत्त रहे हैं परन्तु मात्रिक गणना प्रधान होने पर भी आवश्यकतानुसार उनमें प्रयुक्त हुए वर्गों को ह्रस्य या दी किया जा सकता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वर्ण वृत्तों की अपेक्षा मात्रा वृत्तों में कवि को अधिक स्वतंत्रता रहती है और साथ ही ताले का निदान मात्रा पर आधारित होने के कारण बहुधा वे संगीत के लिये भी उपयुक्त होते हैं। प्राकृत और अपभ्रंश भाषायों के युग में शैल्यूष और मागधों तथा भट और चारों ने साधारण जनता के मनोविन्द के लिये जिन प्राकृत छन्दों की सृष्टि की थी वे जन्मजात ही संगीतमय थे । प्राकृत छन्दों की निमरण लोक-कवियों के अतिरिक्त विद्वान पंडितों द्वारा भी हुआ। यही कारण है कि मध्यकालीन प्राकृत (भाषा) की रचनायें संगीत विहीन हैं परन्तु इसके विपरीत दूसरा विरोधी सत्य यह भी है कि विद्वानों का सहयोग होते हुए भी अपभ्रश कालीन रचनायें संगीत-पूर्ण हैं । मज्झटिका, अपभ्रंश का लाड़ला छन्द है और इसमें आठ मात्राओं के बाद स्वतः ताल लगाने लगती है तथा इस युग के घत्ता और मदनगृह वे छन्द हैं जिनका प्रयोग नृत्य में भी होता है।

जैसे श्रेष्ठ खराद करने वाले के हाथों में जाकर हीरे की चमक बढ़ जाती है बहुत कुछ वही हाल छन्द का भी है । छन्द का नियम पालन करने के अतिरिक्त कवि ही प्रतिभा, विषय के अनुकूल छन्द चुनकर रस और अलंकारों का वास्तविक वांछित योग करके छन्द की महत्ता को बहुत कुछ गौरवपूर्ण पद पर पहुँचा सकती है। कवि के लिये छन्द की मुखापेक्षी होना