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से क्षत्रियों के छत्तींसों वंश ऐसे प्रफुल्लित हुये मानों यदुवंश में यदुनाथ (कृष्ण) का जन्म हुआ हो । दशरथ के राम, वसुदेव के कृष्ण, कश्यप के करुणाकर, कृष्ण के प्रद्युम्न और प्रद्युम्न के अनिरुद्ध के समान बत्तीस लक्षणों, अनेक कलाओं और बाल-सुलभ क्रीड़ाओं वाले पृथ्वीराज कमनीय मूर्ति थे | गुरु राम से चौदह विद्याओं की शिक्षा पाकर अौर गुरु द्रोश से चौरासी कलाओं, अस्त्र-शस्त्रों का संचालन तथा सत्ताइस शास्त्रों का अध्ययन करके गौ, ब्राह्मण का पूजन करने वाले दानी पृथ्वीराज४ संस्कृत प्राकृत, अपभ्रश, पैशाची, मागधी, शौरसेनी इन ॐ भाषा के ज्ञाता हुए । विनयी, गुरुजनों का आदर करने वाले, सर्वज्ञ, सबका पालन करने वाले, श्रेष्ठ सौन्दर्य-मूर्ति पृथ्वीराज बत्तीस लक्षणों से युक्त थे ।६।

वीरों और वीरता को प्रश्रय देने वाले पराक्रमी पृथ्वीराज प्रारंभ से ही साहसी और पुरुषार्थी बीरों को सम्मानित करने लगे थे। अवसर और परिस्थिति विशेष में सोलह राज़ ऊँचे गवाक्ष से कूद पड़ने वाले लोहाना को उन्होने ‘श्राजानुबाहु उपाधि तथा शत्रु का अरछा-राज्य जागीर स्वरूप प्रदान किया। अपने शरणागत सात चालुक्य भइयों को दरबार में मूंछ ऐठने के साधारण अपराध पर मारने के अविचार के कारण उन्होंने सम नीति से चाचा कन्ह की आँखों पर सोने की पट्टी बँधवा दी, धैर्य और निर्भयता से बावन वीरों को वशीभूत किया तथा कन्यादान का वचन देकर पलटने और अपने कुल का निरादर करने वाले मंडोवर के शासक नारराय परिहार को युद्ध में परास्त कर उसकी कन्या का पाणिग्रहण करके अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा की। पितु-भक्त युवराज पृथ्वीराज ने अपने पिता राजा सोमेश्वर को मेवात के युद्ध में राजपूती आनबाने में सहायता दी और विजय-श्री प्राप्त की, गज़नी के शाह शहाबुद्दीन

१-बिगसंत वदन छत्तीस बंश । जदुनाथ जन्म जनु जलुन बंस।।ॐ० ७१५, सं० १;

३--छं० ७२७, स० १;
३---ॐ० ७२६, स० १;
४.---छं० ७३०-४५, स० १; 

५-संस्कृतं प्राकृतं चैव । अपभ्रंश: पिशाचिका ।।

भागधी शूरसेनी च । पट भाषाश्चैव ज्ञायते ॥ छं० ७४६, स० १;

६---विमयी गुरजन शाता । सर्वश: सर्वपालकः ।। शरीरं शोभते श्रेष्ठ । इत्रिशत्तस्य लक्षणम् ।। छ० ७४७, स० १,