पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/५५

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की नौबत श्री उपस्थित होने पर अपने बाहुबले का भरोसा, असीम साहस, अमित धैर्य और अतुलित पराक्रम से चिर-विजयी-भाग्य को सहचर बनाया, कान्यकुब्जे की राजकुमारी द्वारा तीन बार अपनी मूर्ति को वरमाला पहिनाने का वृत्तांत सुनकर छद्म वेश में कन्नौज पहुँचकर उसका हरण किया और दलपं की असंख्य वाहिनी से विषम युद्ध में अपने चौंसठ श्रेष्ठ सामंतों की अपार हानि सहकर स्वयंवरा की पत्नी रूप में प्राप्त किया, उन्नीस बार राज़नाधिपति }ोरी से मोच लेने वाले इस स्वनामधन्य युद्ध-वीर ने बार-बार अधिक प्रबल वेग से क्रिमा करने वाले बैरी को चौदह बार बंदी बनाकर उसे मुक्त करके अपनी दया-वीरता का सिक्का छोड़ा और अंतिम युद्ध में री द्वारा वंदी और अंधे किये जाने पर भी विचंद की सहायता से अपना बदला लेने में समर्थ हुआ तथा राज़नी-दरबार में कवि की छुरी से आत्म-घात करके संसार में शरणागत की रक्षा में प्राणों की आहुति देने, वचन का पालन करने, योद्धाओं का उचित पोषण करते हुए उन्हें बढ़ावा देने, प्रतिष्ठा पर अाँच न आने देने, युद्ध में हितों, गिरे हुओं और भरने वालों को न मारने, स्त्री-बच्चों पर वार न करने, वैर का बदला सिंह सहश लेने और विनम्र शत्रु को प्राण-दान दे डालने का अपूर्व आदर्श स्थायी कर यया । इसीसे तो म्लेच्छों की भार भूमि से हटाने वाले इस परम वीर सम्राट की मृत्यु पर देवताओं ने पुष्पांजलि डाली थी ।' तथा वीणा-पुस्तक-धारिणी सरस्वती योद्धाओं के इस वरेण्य स्वामी के गुणों और कार्यों से अभिभूत होकर कह बैठी थीं—“पृथ्वीराज के गुणों का श्रवण करने से सबको अनिन्द की प्राप्ति होती हैं, नृथ्वीराज के गुण सुनकर शृगाल सदृश भीरु पुरुष भी र में संग्राम करते हैं, धृथ्वीराज का गुणानुवाद सुनकर कृपण जन कपटरहित हो जाते हैं, पृथ्वीराज के गुण जानकर गूग व्यक्ति भी हर्षतिरेक से सिर हिलाने लगता है, नव रसों से अभिषिक्त पृथ्वीराज का सरस रासो मूर्ख की पंडित करने तथा निरुद्यमी को अपूर्व साहसी बनाने वाला है :

प्रथराज गुन सुनत । होय आनन्द' सकल मन ।। प्रथीराज गुन सुनते । करय संग्राम स्यार रन ।। १-मरन चंद बरदाइ । राज पुनि सुनिर साहि हनि ।।

पुहपंजलि असमान । सीस छोड़ी तु देवतनि ।। भेछ अदद्धित धरनि । धरनि सब तय सोह सिग ।।...छं० ५५६, स० ६७