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पर की है। हुसेन पृथ्वीराज के पास क्या या “मनु आयौ ग्रह देद' ( ॐ० ७, स०६ } } चौहान राज संकल्प-विकल्प में पड़े कि म्लेच्छ को मुख देखना, शाह ग़ोरी का क्रोध और शरण-याचक को त्यागना सभी बड़े समस्यात्मक हैं :

मेछ भुष देषे न नृपति, विपति परी दुहु क्रम ।।

इक सरना इक रग्रहन, इक धर् रघुन भने ।। १४


चंद ने मन्छ रूपं जगदीसं' में सरन रष्षि वसुमती' और संकर गर विच कंद जिम, बडवा अगनिं समंद के उदाहरण सामने रखकर प्रेरणा की और उत्कर्ष दिया तथा पृथ्वीराज ने 'सरनागत भ्रम हैं रषिय’ हुसेन को आदर-सत्कार पूर्वक कैथल, हाँसी और हिसार प्रदेशों का शासन भार देकर अभयता का पट्टा लिख दिया । इसका परिणाम शीघ्र ही सामने अाया। सुलतान ने कढढौ हुसेन तुम देस अंत’ का संवाद भेजा जिसे सुनकर पृथ्वीराज ‘कलमलिय कोप रोमंच जिंद' हुए। मंत्री कैगास ने संदेश वाहक अरिङ्ग स्त्र को पटा जीधन म पत्रीय आन’ और चंद पंडीर ने कह डाला सरनै सुकौम कढ्दै नियान'। फिर क्या था वीर शरणदाता पर रख की घोष हो उठा। हुसेन की रक्षा और शडि का रण-मद' चुरा करने के लिये चौहान की वाहिनी बढ़ चली । विषम युद्ध में ग्रोरी तो बंदी हुआ। जिसे संधि कर लेने के पश्चात् मुक्त कर दिया गया परन्तु हुसेन की मृत्यु हो गई । इस प्रकार सयभीत को अभयदान देकर तथा प्राणप्र से उसकी रक्षा का प्रयत्न दिखाकर कवि ने चौहान का चरित्र सँवार कर अनुकरणीय बनाते हुए हिन्दू जनता की निर्दिष्ट अभिलाषा का पोषणा किया है।

गुर्जरेश्वर भोलाराय भीमदेव की अपने सात पैतृव्य ( चचेरे ) भाइयों से अनबन होने पर पृथ्वीराज द्वारा उन्हें अपने यहाँ बुलाकर ग्राम आदि से सम्मानित करने के उपरांत कन्ह चौहान द्वारा उनमें से बड़े भाई प्रतापसिंह को दरबार में अपने सामने भूछ ऐठने के अपराध परमारने और इसके फलस्वरूप युद्ध में शेष छै भाइयों को मृत्यु के घाट उतारने के वृत्तांत में पृथ्वीराज की अाकुलती, अजमेर में हड़ताल और सात दिनों तक दरबार में चाचा (कन्ह) के न आने घर संभरेश को उनके घर जाकर कहना कि अपने घर आये हुओं के साथ आपने ऐसा व्यवहार किया, यह खरा दो श्रापको लग गया और इस बुराई से संसार में अपयश होगा ।

आएति विर्षे अप्पन सुधर । सो रावर ऐसी करिय ।।