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इह दौस अप लग्यौ खरौ । चत्त वित्तरिय जग बुरिय ।।.०, ४० ५

तथा दरबार की निन्दा मिटाने के लिये चघ बँध पट्ट रतन' का प्रस्ताव कर के उनकी आखों पर पाव लाख मूल्य की पट्टी चढ़ा देला, इस प्रकार के व्यवहार के प्रायश्चित स्वरूमा कवि ने दिखाया है । वैसे, भी प्रतापसिंह गुर्जर को कन्ह का गुण विदित ही रहा होगा कि वे अपने सामने मँछ ऐंठने वाले को अपने को ललकारने वाला समझकर उस पर प्रहार कर बैठते हैं । अस्तु, प्रसंगानुकूल कन्ह का कार्य उचित-होते हुए भी पृथ्वीराज द्वारा घर आये के साथ ऐसे बर्ताव की भत्र्सना कराके कवि ने सामाजिक व्यवहार की मर्यादा की रक्षा की है।

स्वामि-धर्म का व्रत दिखाने के फलस्वरूप अर्थात् स्वामी के लिये ऐहिक प्रलोभनों में सबसे महान, जीवन के मोह से रिक्त कहीं कोई सामंत बतीस हाँथ ऊँची चित्रशाला से कूद पड़ता है, किसी का धड़ तीन लाख विपक्षी वीरों का सफाया कर डालता है, किसी का सिर समुन्न रूपी शत्रु-दले में कमल की भाँति खिल उठता है, कोई सुगति माग पुल्लिय दरिय’, किसी की प्राप्ति के लिये 'रंभ, झागरिय कुहिर बर’, कोई ‘तरनि सरन गय सिंधु', कोई सुगति मग लभ्भी घरिथ, किसी के लिये ‘बलि अलि वीर भुअंग भुश्र, कोई असि प्रहार बारह बढ्यौ, कोई रवि मंडल भेदियै, किसी को रहे सूर निरषत् नयन’, कोई करतार हथ्थे तरवार दिय’ को ही इह सु तत्त रजपूत कर' कहता है, कोई वीर गति पाकर सुरपुर में निवास करती है, कोई "बरयौ न की रवि चक्रलर' उपाधि प्राप्त करता है, कोई ‘सत्र सों भिरयौ इकल्ती, किसी का “अंड खंड तन पंडय' हो जाता है, किसी को *सिर फुट्टत घरे धरथौ, धरह तिल तिल होय तुझ्यौ', किसी को रुड अपना सिर स्वामी को समर्पित करके लड़ता है, कोई रास श्रग्र हनमंत जिम’ अग्रसर होता है, कोई करौं पंग दल दति रिन' की प्रतिज्ञा करके पूर्ण करता है, किसी के वीर गति पाने पर उसका वरण करने के लिये अप्सरायें इस प्रकार आ घेरती हैं जैसे ससि पारस रति सरद जिम’, कोई कमधज के ऊपर राहु रूप होकर जि लग्यौ अयासह', किसी के मोक्ष पाने पर 'टरिय गंग सुकर हस्यौ', कोई ‘ज्य बड़वानल लपट, मथि उठत नर नथि' और कोई सगर गौर सिर मौर, रेह रष्षिय अजमेरिय’ राम-रावण सदृश युद्ध का उपमान प्राप्त करता है । नमक का अदा करना भारतवासियों का पुरातन विश्वास हैं। और इस विश्वास के कारण ही अपने अन्नदाता स्वामी के उचित और अनुचित कार्यों में उसके नृत्य इच्छा या अनिच्छा से अपने प्राणों जैसी बहुमूल्य वस्तु की