पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/६१

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साँचा:रह

बलि देते रहे हैं। महाभारत के भीष्म सदृश धर्म-भीरु और ज्ञानी योद्धा नमक खाने के कारण ही पांडवों को धर्म-पथ पर जानते हुए भी आततायी कौरवों की श्रीर से लड़े थे । व्यासस्मृति के कृतघ्ने नास्ति निष्कृति: वचन सुप्रसिद्ध हैं। कृतघ्नता से बढ़कर कोई पाप नहीं समझा जाता था। कुछ अपवाद भले ही मिल जायें अन्यथा पुराणों से लेकर अब तक का भारतीय साहित्य इसी चारित्रिक मर्यादा के अनुष्ठान में श्रद्धा के फूल चढ़ाता आया है। कल्हण का 'राजतरंगिणी' में यह लिखना कि जिसने भूख से बिलखते प्यारे पुत्र को, दूसरे के घर सेवा करने वाली अपनी भाय को, विपत्ति में पड़े हुए मित्र को, दुही हुई किन्तु चारा न मिलने के कारण भाती हुई गाय को, पथ्य के अभाव में रोग-शय्या पर मरणासन्न माता-पिता को तथा शत्रु से पराजित अपने स्वामी को देख लिया, उसे मरने के बाद नरक में भी इससे अधिक अप्रिय दृश्य देखने को क्या मिलेगा———

हुल्लामस्तनयो वधूः परगृहप्रेष्याबसन्न: सुहृत् । दुग्धा गौरशनाद्यभावविवश हम्बारवोद्गारिए । निष्पथ्यौ पितरावदुरमरणौ स्वामी द्विषन्निर्जितो।

दृष्टो येन परं न तस्य निरये प्राप्तव्यंमस्त्यप्रियम् ।। ७-१४१४


स्पष्ट करता है कि सेवक के जीवन धारण करते हुए स्वामी का पराभव उसको नरक तो भेजता ही है परन्तु वहाँ की दारुण यंत्रणायें और हृदय विदारक दृश्य भी इस विडंबना के सम्मुख कोई मूल्य नहीं रखते । ध्वनि यह है कि रौरव नरक और उसके अप्रिय दृश्यों से त्राण पाने के लिये सेवक का धर्म स्वामी की विजय हेतु जूझ मरना है ।

रासो में जहाँ कहीं पृथ्वीराज, जयन्दन्द्र, भीमदेव और परमर्दिदेव के प्रथान योद्धाश्रों के युद्ध का उल्लेख हुया हैं कवि ने स्वामि-धर्म की वेदी पर उनके उत्सर्ग ही दिखाये हैं। सुभटों के परम झाश्रयदाता दिल्लीश्वर चौहान के प्राणों के साथ बुले-मिले उनके यशस्वी सामंत स्वामि-धर्म के अतुलनीय व्रती हैं । परन्तु जहाँ चामंडराय सदृश वाहिनी-धति अपने को निर्दोष मानते हुए भी स्वामी की आज्ञा से बेड़ियाँ धारण कर लेते हैं और उनसे मुक्ति पाने पर चंद द्वारा ‘पाइन बेरी लौन, गलै हौष नृप आन की' से सावधान कर दिये जाते हैं तथा धीर धु'डी' जैसे चौहान-दरबार में प्रबल सुलतान शौरी को बंदी बनाने का बीड़ा उठाते हैं वहाँ दरबार के मु'शी धमथन कायस्थ पृथ्वीराज के भेद ग़ज़नी भेजते रहते हैं और जालंधर के अधिपति' हाहुलीरायं.