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और पितृ-बैर का बदला दिखाकर समाज को तदनुसार आचरण करने का बढ़ावा दिया है।

प्रेम करने में उन्मुक्त हो नहीं वरन् उस प्रेम की उद्योए विशेष से परिणय में परिणत करने वाली साहस और विलास की प्रतिमूर्तियाँ, विरोधी परिवारों में अपने प्राचरा वश सामंजस्य की तारिकायें, मुग्धाक्षत्रिय-राजकुमारियाँ (शशिवृता, पद्मावती आदि), माता-पिता के भावों व्ही अवहेलना करके पूजा व्याजि काजि श्री परसण देवालय अथवा पूर्व निर्दिष्ट संकेत-स्थल से स्वाभाविक किंचित् खेद छौर शंकि प्रकाश कर, सम-विषम परिणाम पर दृष्टिपात न कर के ग्राडूत प्रेमी के साथ चल देती हैं। प्रेमी के बलाबल और शैय की लोक-प्रसिद्ध गाथा सुनकर ही तो उन्होंने उसको अपना प्राधन वनाय था, दमयन्ती, क्मिणी, ऊत्रा आदि पौराणिक नारियों के अनुरूप प्रवद् और उफलता ने ही तो उन्हें प्रेरणा दी थी, तब विपन्न युद्ध में अपराजित प्रिय के विजयोन्माद में उल्हसित ये बालायें उसके घर क्यों न पहुँच जातीं। समाज के शधिक प्रचलित, प्रतिष्ठित और विहित नियमों के साथ विवाहित रमणियों की तुलना में वरण-हरण द्वारा परिणीता जीवन-संगिनियाँ अतीव पतिपरायणता और पति की मृत्यु के उपरांत सती होकर स्वामी के साथ चिर-सहचारिता के दावे में किसी प्रकार घट कर नहीं हैं। इस प्रकार के चित्र से कवि ने इस क्षेत्र में प्रसिद्धि और अपवाद के समन्वय द्वारा सामाजिक मर्यादा की रक्त की है। 

बार-बार बन्दी-गृह से मुक्त होकर अधिक प्रचंड वेग से आक्रमण करने वाले विश्वासघाती शत्रु द्वारा स्वयं बन्दी और अंधे किये जाने पर, उससे मृत्यु के सौदे पर अपना बदला चुकाना व्यक्तिगत, सामाजिक तथा देशीय विजय के साथ ही नैतिकता और धर्म-पक्ष की भी विजय हैं; अन्यायी को दंड मिलना उचित है इसीसे शोक में समाप्त होने वाले इस महाकाव्य की परिसमाप्ति में चंद के पुत्र कवि जल्ह ने धूरती का म्लेच्छों के उद्धार पृथ्वीराज की मृत्यु से अधिक सुखद और सन्तोषप्रद बताकर देवताओं द्वारा पुष्पांजलि दिलाई है:

मरन चंद बरदाह । राउँ मुनि सुनिश साहि हनि ।। पुडपंजलि असमान । सीस छोड़ी सु देबतनि ।। मेछ अवञ्चित धरनिं । अनि रुब तीय सौह सिंग !! तिनहि तिनह सुजोति । जोति जोतिह संपातिग ।। रास असंभ नव रस सरस । चंद छंद किय अभिव सम ।।

श्रृंगार बीर करुना निभछ । अथ अदभुत्त हसंत सम ।। ५,५६, स० ६७