पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(५४)

 

महाकाव्यत्व

'प्रबन्ध' और 'निर्बन्ध' (या मुक्तक) श्रव्य-काव्य के दो भेद माने गये हैं। पूर्वापर से सम्बन्ध रखने वाला 'प्रबन्ध' और इस तारतम्य से रहित 'मुक्तक' कहा गया है। 'प्रबन्ध' में छन्द परस्पर कथा-सूत्र से ग्रथित रहते हैं और उनमें किसी प्रकार का व्यतिक्रम संभव नहीं है। 'मुक्तक' के स्वयं-स्वतंत्र छन्दों का क्रम भंग किया जा सकता है। कुछ आचार्यों ने दो-दो और तीन-तीन छन्दों के भी 'मुक्तक' माने हैं। आधुनिक हिन्दी-काव्य के गीत संयुक्त-मुक्तकों की कोटि में आते हैं। 'प्रबन्ध' में सम्पूर्ण काव्य सामूहिक रूप से अपना प्रभाव डालता है परन्तु 'मुक्तक' का प्रत्येक स्वतंत्र छन्द अपने भाव और प्रभाव में उन्मुक्त रहता है।

'महाकाव्य', 'काव्य' और 'खण्डकाव्य' ये तीन प्रबन्ध-काव्य के भेद हैं। जीवन को अनेकरूपता दिखाने वाला या समग्र रूप में उसका चित्रण करने वाला 'महाकाव्य' विशाल आकार और दीर्घ कथानक वाला होता है। 'महाकाव्य' की प्रणाली पर लिखा जाकर भी उसके सम्पूर्ण लक्षणों का उपयोग न करने वाला 'काव्य' कहलाता है और विद्वानों ने इस प्रकार के कथा-निरूपक सर्ग-बद्ध काव्यों को 'एकार्थ-काव्य' कहा है। जीवन की एक ही परन्तु स्वत:पूर्ण घटना को मुख्यता देने के कारण एकदेशीयता वाला 'खण्डकाव्य' विख्यात हैं।

जिस प्रकार भाषा बन जाने के उपरान्त उसका व्याकरण निर्धारित किया जाता है उसी प्रकार साहित्य की विविध विधाओं—श्रव्य और दृश्य काव्यों के निर्माण के बाद उनके लक्षण निश्चित किये जाते हैं। और जिस प्रकार आगामी पीढ़ियाँ व्याकरण के ज्ञान प्राप्ति के माध्यम से किसी भाषा का ज्ञान अर्जन करके उसमें साहित्य सर्जन करती हैं उसी प्रकार लक्षण-ग्रन्थों के आधार पर परवर्ती विद्वान् साहित्य के विविध प्रकारों को जन्म देते हैं तथा बहुतेरे मेधावी अपूर्व योजनाओं की चमत्कृति से लक्षणों में परिवर्तन या नवीन योग उपस्थित करते हुए भी पाये गये हैं। प्रो॰ ललिताप्रसाद सुकुल ने उचित ही लिखा है—'कलाकार मन्तव्य न जानता हुआ, असीम गन्तव्य में, अनुगामियों की दृष्टि से अदृश्य रहकर उनका मार्ग प्रदर्शन करता हुआ, आलोचक (आचार्य) के इशारों से नई प्रेरणा और नवीन आदर्श पाकर भी उसे पीछे छोड़कर सृजन का अग्रदूत है।'[१]


  1. साहित्य जिज्ञासा, पृ॰ २४;