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पाश्चात्य प्राचार्यों के अनुसार महाकाव्य' वर्णन-प्रधान या विषय-प्रधांने काव्य के अन्तर्गत रखा जाता है और इसी से उसे एपिंक' कहा गया है । संस्कृत के लक्षण-ग्रन्थों में महाकाव्य' के बिविध अंगों का विस्तार पर्वक विवेचन मिलता है। पाश्चात्य और भारतीय प्राचार्यों द्वारा प्रतिपादित ‘महाकाव्य’ के लक्षणों में विशेष अन्तर नहीं है। पश्चिात्य अाचार्यं नहाकाव्य' में जातीय भावनाओं के समावेश पर अधिक बल देते हैं जब कि भारतीय महाकाव्य जातीय भावनाओं के स्थान पर युद्ध, यात्रा, ऋतु-वर्णन आदि को प्रश्रय देते हैं । अाज विकासशील मानव ने महाकाव्य-सम्बन्धी प्राचीन दश में परिवर्तन और संशोधन कर लिये हैं।

भारतीय प्राचार्यों में आठवीं शताब्दी के दंडी ने महाकाव्य के लक्षणों की विवेचना अपने ‘काव्यादर्श' में इस प्रकार की है——

सर्गबन्धो महाकाव्यमुच्यते तस्य लक्षणम् । आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वापि तन्मुखम् ।। १४ इतिहासकथोद्भूत भितरः सदाश्रयम् । चतुर्वर्गफलोपेतं चतुरोदात्तनायकम् ।। १५ नगरार्णव - शैलर्तु • चन्द्राक्रोदयवर्णनैः । उद्यानसलिल - क्रीड़ा - मधुपान - रतोत्सवैः ।। १६ विप्रलम्सैबिंनाहैश्च कुमारोदयवर्णनैः। मन्त्र - दूत - प्रयाणाजि • नायकाभ्युदयैरपि ।। १७ अलंकृतमसंक्षिप्त रसभवि निरन्तरम् । सरनतिविस्तीरः श्रव्य वृत्तै: सुसन्धिभि: ।। १८ सर्बत्र 'भिन्नवृत्तान्तैरुपेतं लोकरञ्जकम् ।

काव्यं कल्पान्तरस्थायि जायेत सलंकृति ।। १६

काव्य की सगुण शब्दार्थों परिभाप करने वाले बारहवीं शताब्दी के प्राचार्य हेमचन्द्र सूरि ने अपने काव्यानुशासनम् में महाकाव्य को संस्कृत भाषा तक ही सीमित नहीं रखा वरन् विभिन्न प्राकृतों, अपभ्रंश और ग्राम्यभाषाओं के महाकाव्यों का भी उल्लेख किया तथा उनमें सर्ग के पर्याय क्रमश: आश्वास, सन्धि और अवस्कन्ध बतलाये और मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श तथा निर्वहण ये पाँच सन्धियाँ जो अभी तक पूर्ववर्तियों द्वारा केवल नाटक में अपेक्षित कही गई थीं, उन्होंने महाकाव्य में आवश्यक बतलाई|

‘पद्यं'प्राय:संस्कृतप्राकृतापभ्रशग्राम्यभानिवद्धभिन्नान्त्यवृत्तसगश्वाससंध्यवस्कन्धकबन्धं सत्सन्धि शब्दार्थ वैचित्र्योपेतं महाकाव्यमः । ८, ६