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(६) (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) इस चतुर्वर्ग में से एक उसका फल होता है।

(७) प्रारम्भ में आशीर्वाद, नमस्कार या वर्थ-वस्तु का निर्देश होता है।

(८) कहीं खलों की निन्दा शौर सज्जनों का गुणानुवाद रहता है।

(९) इसमें न बहुत छोटे और न बहुत बड़े आठ से अधिक सर्ग होते हैं।

(१०) इन सर्गों में प्रत्येक में एक ही छन्द होता है किन्तु सग का अन्तिम पद्य भिन्न छन्द में होता है। कहीं-कहीं सर्ग में अनेक छन्द भी मिलते हैं।

(११) सर्ग के अन्त में आगामी कंथा की सूचना होनी चाहिये।

(१२) इसमें सन्ध्या, सूर्य, चन्द्रमा, रात्रि, प्रदोष, ध्वान्त, वसिर, प्रात:काल, मध्याह्न, भृया, शैल, ऋतु, वन, सागर, सम्भोग, विप्रलम्भ, मुनि, स्वर्ग, नगर, अध्वर, रण, प्रयाण, उपयम, मंत्र, पुत्र और उदय अदि का यथा सम्भव साङ्गपाङ्ग वर्णन होना चाहिये।।

(१३) इसका नाम कवि के नाम से (यथा माघ) या चरित्र के नाम से (यथा कुमारसंभव) अथवा चरित्रनायक के नाम से (यथा रघुवंश) होना चाहिये। कहीं-कहीं इनके अतिरिक्त भी नाम होता है (थथा भट्टि)।

(१४) सर्ग की वर्णनीय कथा से सर्ग का नाम रखा जाता है।

महाकाव्य की इस कसौटी पर देखना है कि पृथ्वीराज-रास में निर्दिष्ट लक्षण कहाँ तक उपलब्ध होते हैं। इन पर क्रमशः विचार उचित होरा:--

(१) रासो में ‘महोवा समय’ को लेकर ६९ समय यो प्रस्ताब हैं जो कथा के बलयनसूत्र से आबद्ध हैं। 'समय' या प्रस्ताव” शब्द सर्ग का पर्याय है। ये विविध समय महाराज पृथ्वीराज के जीवन की घटनाओं पर आधारित हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इनकी शृङ्खलायें बहुत सुद्दढ़ नहीं परन्तु आकर्षण की इनमें कभी नहीं है। डा० धीरेन्द्र वर्मा ने अपने ‘पृथ्वीराज रासो' शीर्षक लेख में उचित ही लिखा है——“इस क्रमबद्ध जंजीर को तैयार करने में लम्बी-छोटी, सुडौल-बेडौल, अनेक हाथों से गढ़ी हुई पृथक पृथक कड़ियों का उपयोग किया गया हैं जो एक दूसरे के साथ बाद को उड़ दी गई हैं। ऐसा होने पर भी यह जंजीर असाधारण ही है।”[१]

(२) महाराज सोमेश्वर के पुत्र तथा अजमेर और दिल्ली के शासक

  1. ——काशी विद्यापीठ रजत जयन्ती अभिनंदन ग्रंथ, पृ० १७८;